हिवरे बाजार का नाम सुना है आपने? नहीं सुना होगा। सुनते भी कैसे, जो इस नाम से आपको परिचित करा सकते थे, हमारे अखबार और तथाकथित समाचार चैनल, उनकी खबर की परिभाषा में यह नाम शायद फिट नहीं बैठता। उन्हें जब सनसनी और वारदात से फुर्सत मिलेगी तब शायद वे इस गांव की भी सुध लें। जी हाँ, हिवरे बाजार एक गांव का नाम है। मुंबई से लगभग 300 किलोमीटर दूर, अहमदाबाद जिले के इस गांव में कुछ महीने पहले कुछ ऐसा हुआ था जो समाचार बनना चाहिए था- पर यह ‘कुछ’ वैसा नहीं था जो आजकल समाचार बनता है। यह ‘कुछ’ सकारात्मक था, गांव वालों की जागरूकता और समझदारी का परिचायक था। गांव वालों ने कुछ अनुकरणीय किया था।
पेट्रोल के भावों की अंधाधुंध तेज़ी से पहले, और सरकार द्वारा पेट्रोल बचाने की अपील से पहले और मंत्रियों द्वारा दौरे और यात्राएं कम करने की नाटकीय घोषणाओं से भी पहले, इस गांव के लोगों ने संकट को पहचाना था और अपने स्तर पर संकट का मुकाबला करने के लिए स्वेच्छा से कुछ समझदारी भरे निर्णय किये थे। गांव वालों ने एकमत से निर्णय किया कि वे गांव के भीतर पेट्रोल से चलने वाले वाहन नहीं चलायेंगे, कि वे साइकिल से दूरियां तय करेंगे, कि वे सब्जियां या अनाज आदि बेचने के लिए बारी-बारी से या मिलकर किसी एक वाहन से शहर जायेंगे….।
लगभग तेरह सौ की आबादी वाले छोटे से गांव के इन छोटे-छोटे निर्णयों से भले ही प्रतिदिन सौ लीटर पेट्रोल बच रहा हो, लेकिन निश्चित रूप से यह जागरूक नागरिकता एवं साहसिक सूझबूझ का अनुकरणीय उदाहरण है। यहाँ यह जानकारी भी महत्वपूर्ण है कि इस गांव के लोगों ने यह निर्णय गरीबी अथवा पेट्रोल-डीज़ल न खरीद पाने की मजबूरी से नहीं लिया है। 236 परिवारों वाले इस छोटे से गांव में कुल 307 वाहन हैं- 268 मोटरसाइकिल, 22 चार पहिये वाली गाड़ियां और 17 ट्रैक्टर। स्पष्ट है कि इस निर्णय के पीछे कारण स्थिति की गंभीरता की समझ ही है। गांव के लोग पेट्रोल और पेट्रोल की कीमत, दोनों की महत्ता को समझ रहे हैं- पैसा बचाने की महत्ता को भी।
कहने को तो हमारे प्रधानमंत्री ने भी पैसा बचाने की बात कही है। अपने साथी मंत्रियों से आग्रह भी किया है कि वे यात्राएं कम करें। अधिकारियों को भी इस तरह के निर्देश दिये गये हैं लेकिन व्यवहार में कहीं ऐसा दिख नहीं रहा कि हमारे नीति-निर्माता अथवा नीतियों के अऩुसार देश का काम चलाने की जिम्मेदारी संभालने वाले स्थिति की गंभीरता के अनुरूप आचरण कर रहे हैं। मंत्रियों की कारों के साथ कारों का काफिला चलना ज़रूरत नहीं, प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। पेट्रोल की कमी या पेट्रोल महंगा होने की बात तो अवश्य की जा रही है, लेकिन कहीं ऐसा दिख नहीं रहा कि मंत्रियों को इस कमी या इस महंगाई की कोई खास चिंता है। नेतृत्व का मतलब निर्देश देना नहीं होता, नेतृत्व का मतलब है आगे बढ़ कर उदाहरण प्रस्तुत करना। यह काम ‘हिवरे बाजार’ ने किया है। गांव के सजग सरपंच का कहना है, ‘साइकिल चलाकर और वाहन का मिलजुल कर उपयोग करके हम प्रतिदिन 900 लीटर पेट्रोल बचायेंगे।’
बयासी वर्षीय राव साहब रानोजी पवार गांव के पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1970 में मोटर साइकिल खरीदी थी। लेकिन आज वे साइकिल से गांव में घूमते हैं। उनका कहना है कि ‘इससे पेट्रोल तो बचता ही है, स्वास्थ्य भी ठीक रहता है।’ उन्हें शिकायत है कि गांव के युवा साइकिल चलाकर जल्दी थक जाते हैं।
आज पेट्रोल की बचत का उदाहरण प्रस्तुत करनेे वाला यह छोटा-सा गांव पहले भी इस तरह के काम कर चुका है। बरसों पहले जब इलाके में सूखा पड़ा था तो इस गांव के लोगों ने आसपास के जंगलों को बचाने और ‘वाटर हारवेस्िंटग’ का सहारा लिया था। तब इस गांव की इस पहल को देखने-समझने के लिए राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां भी पहुँची थीं। सिर्फ यही पहल नहीं की थी इस गांव ने। वाटर हारवेस्िंटग के सहारे खेती के लिए पानी की कमी इस गांव को महसूस नहीं होती। और गांव वाले एचआईवी जांच का महत्व भी समझते हैं। सन् 2000 में इस गांव के लोगों ने एक प्रस्ताव पारित करके शादी से पहले एचआईवी टेस्ट कराना ज़रूरी घोषित कर दिया था। गांव वालों को अपनी इन उपलब्धियों का महत्व पता है, और उन्हें गर्व भी है इन पर। लेकिन महत्वपूर्ण यह भी है कि इस सबको वे राष्ट्र के जागरूक नागरिक होने के नाते ज़रूरी मानते हैं। गांव के सरपंच का यह कहना कि ‘हम यह दावा नहीं करते कि हम कोई महान कार्य कर रहे हैं लेकिन यदि एक छोटा-सा गांव यह सब कर सकता है तो बाकी लोग ऐसा क्यों नहीं कर सकते?
निश्चित रूप से यह सवाल महत्वपूर्ण है। कहने से नहीं, करने से कुछ होता है, इस बात का अहसास कराने वाला कोई गांव यदि यह सवाल पूछता है तो इसे सही संदर्भों में समझना ज़रूरी है। सच तो यह है कि यह सवाल बाकियों को खुद अपने आप से पूछना है। इन बाकियों में हमारी केंद्र सरकार और राज्यों की सरकारें भी शामिल हैं। पूछा यह भी जाना चाहिए कि यदि लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर सारा देश सप्ताह में एक समय का खाना छोड़ कर खाद्यान्न की कमी के मुकाबले में हाथ बंंटा सकता था तो आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कहने पर पेट्रोल की बचत के लिए देश कमर क्यों नहीं कस रहा? लालबहादुर शास्त्री के आठान को सारे विपक्ष का समर्थन प्राप्त था, लेकिन आज विपक्ष सरकार की आलोचना से आगे बढ़ना ही नहीं चाहता। महंगाई के बढ़ने में सरकार की नीतियों का हाथ हो सकता है, लेकिन महंगाई से उत्पन्न स्थिति से जूझने में सारे देश का सहयोग ज़रूरी है। आज देश में इस भावना की कमी साफ दिख रही है।
महाराष्ट्र के इस छोटे-से गांव ने राष्ट्रीय सहयोग भावना का एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। और भी गांव होंगे जहाँ इस तरह के काम हो रहे हैं लेकिन इनसे प्रेरणा लेने के उदाहरण नहीं दिख रहे। राजनीति के लिए ऐसे उदाहरण ‘अनुत्पादक’ माने-जाने लगे हैं और मीडिया के लिए यह इसलिए उपयोगी नहीं हैं कि इनसे टीआरपी नहीं बढ़ती, बिाी नहीं बढ़ती है।
हमें सोचना होगा कि आरुषि काण्ड पर 23 दिनों में 42 प्रतिशत समय देने वाले हमारे मीडिया के पास किसी हिवरे बाजार के लिए समय कब होगा। सवाल यह नहीं है कि अपराध-कथाएं हमारे मीडिया की प्राथमिकता क्यों बन रही हैं, सवाल यह है कि विकास कथाओं को समाचार समझना हम कब शुरू करेंगे? सवाल समाज की मानसिकता के परिष्कार का भी है।
महाराष्ट्र का यह गांव किसी ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ का हिस्सा बनना ही चाहिए। यह समाज के एक वर्ग के सकारात्मक सोच का उदाहरण भी है और इस बात का परिचायक भी कि शेष समाज नकारात्मक सोच से मुक्त नहीं हो पा रहा। इस शेष समाज में वे सब भी शामिल हैं, जिन्हें हम अपना प्रतिनिधि कहते हैं और जो स्वयं को मार्गदर्शक समझते हैं। मार्गदर्शन हिवरे बाजार जैसे उदाहरणों से मिलता है- और ऐसे ढेरों-ढेरों उदाहरणों की ज़रूरत है देश को।
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