आस्था की झील में प्रेम-पुष्प

Mradul Krishan Shastriआस्था का संबंध व्यक्ति के विश्र्वास के साथ जुड़ा है। एक ऐसा विश्र्वास, जिसकी गहराई अथाह है। एक ऐसी भावना, जिसके चलते कोई भी मनुष्य समर्पण के सारे बन्धन तोड़ देता है। आस्था कोई अंधविश्र्वास का नाम या रूप नहीं है। इसका संबंध प्रेम से है। प्रेम के विकृत रूप से नहीं अपितु प्रेम के पवित्र, स्वस्थ और जीवन्त रूप में आस्था के भाव पल्लवित होते हैं।

सांसारिक प्रेम विषयों से, राग से, सुख से जुड़ा रहता है। संसार के प्रत्येक संबंध में प्रेम दिखता है। पति-पत्नी, भाई-बहन और भी नाते-रिश्ते और इसके साथ दोस्ती में भी प्रेम की भावना मिलती है, लेकिन इस प्रेम में आस्था कहीं नहीं है। इसका कारण है कि व्यक्ति को आज अपने ऊपर ही विश्र्वास नहीं रह गया तो फिर वह दूसरे के प्रति विश्र्वास कहॉं से लाये?

फिर प्रश्र्न्न उठता है कि प्रेम कैसे होगा? ये जो प्रेम आजकल दिखलाई देता है, वह विशुद्ध लेन-देन पर आधारित है। रुपये-पैसे का लेन-देन के साथ-साथ भावों का लेन-देन भी आज प्रेम के क्षेत्र में उतर आया है। स्वार्थ साधने में होड़ लगी है। कौन, किस पर विश्र्वास करे, सभी अंधेरे में तीर चला रहे हैं, कभी ना कभी तो निशाना लग ही जायेगा। यही सोच है, यही चिन्तन है।

बहुत से लोगों को तो प्रेम के मायने ही नहीं पता। बस संबंधों का निर्वाह किये जा रहे हैं। जिंदगी की गाड़ी के साथ-साथ बाकी चीजें भी चल रही हैं। बस जिसके साथ थोड़े विचार मिल गये, जीना थोड़ा सहज लगा, उसी से लगाव हो गया और यही लगाव उनके लिये प्रेम बन गया।

कुछ लोग तो इनसे भी दो हाथ आगे चलते हैं। उनके लिये प्रेम करने योग्य व्यक्ति वही है, जो धन लेकर आये, जिससे सुख मिलने की उम्मीद हो अर्थात् जो उनके किसी काम का हो। बस, इससे इतर उनकी सोच नहीं जाती। अब यहॉं अपेक्षा या स्वार्थसिद्धि भी प्रेम बन गयी। इस घोर सांसारिक वृत्ति के साथ जुड़कर प्रेम जैसा शब्द भी अपवित्र और दूषित हो जाता है।

ये प्रेम नहीं है। ये विकृति है। प्रेम कोई उन्माद नहीं, कोई समझौता नहीं, कोई दबाव, कोई उपेक्षा, कोई स्वार्थ, कोई हित साधन नहीं है। प्रेम सांसारिक विषयों की परिभाषा में कहीं फिट नहीं होता। उसमें विषयों का लेशमात्र भी प्रवेश नहीं। वह तो गंगाजल के समान पवित्र और पावन करने वाला है। प्रेम हृदय के आत्मतत्त्व से जुड़ा है। उसमें संसार की कलुषता नहीं है। वह तो शाश्र्वत् सत्य का प्रतीक है। उज्ज्वलता का द्योतक है। प्रेम के भीतर कुछ पाने की नहीं अपितु निछावर कर देने की भावना होती है।

ऐसा प्रेम तो केवल परमपिता परमात्मा से ही मिल सकता है और भक्त की आस्था ही ऐसे प्रेम का समर्पण कर सकती है। जरा सोचकर देखो, संसार में जिस व्यक्ति से प्रेम करते हो, कुछ समय के बाद उस व्यक्ति के प्रति आकर्षण फीका पड़ने लगता है। मोह की परत उतर जाती है, लेकिन जब ठाकुर से प्रेम करते हैं, तो उस प्रेम की छटा ही अनोखी होती है। प्रभु के दर्शन करने पर एक बार जब भाव मन में भर जाता है तो फिर प्रेम के आनन्द की ऐसी लहरें उठती हैं कि बस पूछो ही मत। मन भरता नहीं, आँखें थकती नहीं। बस, एकटक उस रूप-माधुरी का पान करती जाती हैं।

वहां वाणी मौन हो जाती है। शब्दों को अभिव्यक्ति नहीं मिलती। कुछ बचता है, तो नेत्रों से छलकते अश्रुबिन्दुओं के माध्यम से ही स्पष्ट हो जाता है। ये प्रेम है। शुरू-शुरू में तो भक्त भगवान से संसार की वस्तुएँ मांगता है, फिर उसकी कृपा मांगता है, फिर उसकी रज़ा में ही राज़ी रहने लगता है, फिर मुक्ति भी बेमानी हो जाती है और यही प्रेम की सर्वोच्च अवस्था है।

इस प्रेम-प्याले को जिसने पी लिया, उसका जीवन धन्य हो गया। इस अमृत-रस की खुमारी एक बार चढ़ गयी तो फिर उतरने का नाम ही नहीं लेती। रसना भी उसी के नाम से इस में सराबोर हो जाना चाहती है। मन से सारे विकार दूर हो जाते हैं। अपने-पराये का कोई भेद नहीं होता। सभी में उस ठाकुर की छवि है। समूचे जगत में उन्हीं की सत्ता लक्षित होती है।

यही प्रेम की पवित्रता है। यही वह भाव है, जिस पर भगवान रीझते हैं। सोने-चांदी, हीरे-मोती की उस पालनहार को दरकार नहीं। हॉं, तुम्हारा निश्र्चल, सहज और सरल प्रेम उसे सदैव स्वीकार्य होगा। आस्था या विश्र्वास जो प्रभु के दर्शन मात्र से जागता है, उसका भला कहीं कोई मुकाबला है। वह तो आस्था को भी कृतार्थ कर देता है। इसलिए हे मन! अपने प्रेम रूपी पुष्प को आस्था रूपी झील में खिला, जिससे तुझे परमात्मा के श्रीचरणों में चढ़ाकर मैं धन्य हो जाऊँ।

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