वसुन्धरा के विलक्षण महापुरुष थे आचार्य श्री तुलसी। वे मानवता के मसीहा थे। उनका प्रत्येक कार्य मानव कल्याण से जुड़ा हुआ था। उनका चिंतन और दृष्टिकोण साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर था। बिहार की पदयात्रा में किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा, “”आप हिन्दू हैं या मुसलमान?” उत्तर में संत श्री तुलसी ने कहा, “”मेरे सिर में चोटी नहीं है, इसलिए मैं हिन्दू नहीं हूं। इस्लाम परम्परा में जन्मा नहीं हूं अतः मुसलमान भी नहीं हूँ। सबसे पहले मैं मानव हूं, उसके बाद एक धार्मिक हूं, फिर एक जैन मुनि हूं, उसके पश्र्चात् तेरापंथ का आचार्य हूं।” राष्ट्रसंघ तुलसी के इसी असाम्प्रदायिक व व्यापक दृष्टिकोण ने उन्हें मानवतावादी धर्माचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया, जिनकी ख्याति आज अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज तक पहुंच चुकी है।
संत श्री तुलसी ने राजस्थान के लाडनूं शहर में प्रसिद्ध खटेड़ परिवार में जन्म लिया। माता वंदनाजी ने आप में ऐसे संस्कारों का बीजरोपण किया कि अल्पवय में ही आपके जीवन में अध्यात्म के अंकुर प्रस्फुटित हो गये। 11 वर्ष की छोटी अवस्था में अष्टमाचार्य पूज्य कालुगणी के पास दीक्षित हुए। कुशल अनुशासन में अपनी उर्वर मेधा से जैन व जैनेत्तर दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन किया। संस्कृत एवं प्राकृत जैसी गहन भाषाओं में श्रेष्ठता प्राप्त की। हजारों पद कंठस्थ किये। कुशल पारखी पूज्य कालुगणी ने तुलसी में असीम क्षमताओं को देखकर 22 वर्ष की अवस्था में तेरापंथ संघ का गुरुत्तर दायित्व उनके कंधों पर सौंप दिया, जो इतिहास की विरल घटना कही जा सकती है। छोटी उम्र में आचार्य बनना बड़ी बात नहीं है, आचार्यत्व की प्रतिभा को पा लेना महानता की बात है।
आचार्य तुलसी का विराट व्यक्तित्व भी सबको आकर्षित करने वाला था। सुडौल, सुसंगठित मझला कद, गौर वर्ण, मुस्कान बिखेरता हुआ सौम्य चेहरा, तेजस्वी आँखें, प्रलम्ब कान, सूर्यसम चकमता आभा मंडल, सुदृढ़ कंधे, हंस की-सी चाल व्यक्ति को पहले क्षण में ही प्रभावित कर लेती थी। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना प्रभावकारी था, उससे कई गुणा अधिक उनका आंतरिक व्यक्तित्व पवित्र था। उनके अंतः स्थल में मैत्री, करूणा व समता का अजस्र स्त्रोत प्रतिपल बहता रहता था।
आपने आगम सम्पादन व आगम शोध का दुरूह कार्य किया, जिससे जैन-दर्शन व भगवान महावीर की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नयी पहचान बनी। जैन-दर्शन के मूर्धन्य विद्वान दलसुख भाई मालवणिया ने आगम सम्पादन के कार्य को देखकर कहा था कि आगम सम्पादन के इस काम को अन्य संस्थाएँ करोड़ों रुपये खर्च करके सौ वर्षों में भी नहीं कर सकती थीं, उसी कार्य को मात्र 35 वर्षों में पूरा कर देना, यह संत तुलसी की करामात ही है। आगम सम्पादन का सारा श्रेय गुरुदेव श्री तुलसी एवं उनके यशस्वी उत्तराधिकारी आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी को जाता है। उनके पास सक्षम साधु-साध्वियों का संघ भी था।
गुरुदेव श्री तुलसी ने केवल धर्मसंघ व समाज के लिए ही कार्य नहीं किया, बल्कि देश व राष्ट्रहित के लिए अणुव्रत, जीवन-विज्ञान व प्रेक्षाध्यान जैसे महत्वपूर्ण अवदान दिये। आज से करीब 5 दशक पूर्व उन्होंने नैतिक चेतना को जागृत कर मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया था। अणुव्रत असाम्प्रदायिक आंदोलन है। इस पर किसी जाति, भाषा, वर्ग व सम्प्रदाय का आधिपत्य नहीं है। यह नैतिक जागरण व चरित्र-निर्माण का आंदोलन है। मानव-मानव को मानवता के शिखर पर पहुँचा देना इसका मूल उद्देश्य है। इस नैतिक ाांति की दीपशिखा को निरंतर प्रज्जवलित रखने के लिए संत श्री तुलसी ने कच्छ से कलकत्ता, पंजाब से कन्या कुमारी तक करीब 1 लाख किलोमीटर की पदयात्रा की। अणुव्रत की प्रासंगिकता आज दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। वह इसलिए कि अणुव्रत ने समन्वयपरक दृष्टिकोण का निर्माण किया है, जिसने साम्प्रदायवाद, जातिवाद व अर्थवाद से ऊपजी समस्त समस्याओं का समाधान दिया है। अणुव्रत आंदोलन आज राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में पहचाना जाने लगा है। देश के विशिष्ट चिंतकों व साहित्यकारों ने इसका तहदिल से अनुमोदन किया है और कर रहे हैं।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने “लिविंग विद ए परपज’ नामक ग्रन्थ में जिन प्रमुख 14 महा-पुरुषों का जीवन-वृत्त प्रस्तुत किया है, उनमें एक नाम था-संत श्री तुलसी, जो राष्ट्रीय एकता व शांति तथा सद्भाव के लिए अहर्निश प्रयत्नशील थे, जिन्होंने अपने तटस्थ व निष्पक्ष भाव से राजनीति को भी प्रभावित किया था। आचार्य तुलसी ने समय पर युग-धारा को मोड़ दिया तथा अशांत विश्र्व को शांति का संदेश दिया। कुछ वर्ष पूर्व भारत की संसद में अभूतपूर्व गतिरोध उत्पन्न होने पर संत श्री तुलसी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसी प्रकार पंजाब में शांति स्थापित करने के लिए राजीव-लोंगोवाल का समझौता भी इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाएगा। इनके अवदानों की लंबी श्रृंखला अविस्मरणीय है। इन्हीं मानवतावादी व कल्याणकारी अवदानों का मूल्यांकन करते हुए भारत सरकार ने 31 अक्तूबर, 1993 को “इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार’ से उन्हें सम्मानित किया। इससे पूर्व अनेक अलंकरणों से संत श्री तुलसी अलंकृत हो चुके थे। आचार्य काल के 25 वर्ष की सम्पन्नता पर तत्कालीन राष्ट्रपति राधाकृष्णन द्वारा तथा 1971 में षष्टिपूर्ति के अवसर पर राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने इन्हें युग-प्रधान की उपाधि से अलंकृत किया। सन् 1980 में उदयपुर में आचार्य काल की स्वर्ण जयंती के अवसर पर राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने “भारत ज्योति’ तथा 1903 में “वाकपति’ के अलंकरण से संत तुलसी को विभूषित किया। अलंकरणों से उनका सम्मान नहीं बल्कि स्वयं अलंकरण सम्मानित हो गये।
संत श्री तुलसी नैतिकता के प्राण प्रतिष्ठाता थे। उसके विस्तार के लिए उन्होंने अणुव्रत विचार को धर्म नहीं, जीवनशैली का अंग बताया। इस महान उद्देश्य से प्रभावित होकर भारत सरकार ने उनकी पुण्य-स्मृति में 85वें जन्म- दिवस पर डाक-टिकट जारी कर कृत-कृत्यता का अनुभव किया, जिसका लोकार्पण उपराष्ट्रपति श्री कृष्णकांत जी ने किया। डाक-टिकट जारी कर भारत सरकार ने नैतिकता के पुरोधा संत श्री तुलसी के नैतिक मूल्यों के प्रति आस्था जाहिर की, जो शुभ भविष्य का सूचक है।
संत श्री तुलसी ने जैन-धर्म को जन-जन तक पहुंचाने का अथक परिश्रम किया। उन्होंने अपने जीवन-काल में अनेक अवरोधों व अवरोहों को पार करके नैतिकता का शंखनाद किया। धूमिल होती हुई मानवीय चेतना को नयी राह दिखायी। सुप्त चेतना को जागृत किया। उनके कार्यों की प्रतिक्रिया में विरोधों के भयंकर बादल भी मंडराए।
संत श्री तुलसी कभी पीछे नहीं मुड़े, कभी रुके नहीं, आगे बढ़ते गये, कारवां बनता गया। संघर्षों के हर चौराहे पर शूलों ने फूल बनकर आपका स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व व कर्त्तव्य की गौरव-गाथा आज इतिहास की धरोहर बन गयी है। उनके द्वारा प्रदत्त संदेश प्रकाशपुंज बनकर देश, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करता रहेगा।
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