भारत के भूतपूर्व राजा-महाराजा अपने राज्यों के लिए लड़ा करते थे, लेकिन राज्य या रियासत से बढ़कर आजादी के मूल्य को पहचानने वाले प्रथम इतिहास पुरुष महाराणा प्रताप ही थे। अपराजित योद्धा महाराणा प्रताप का इतिहास दानवीर भामाशाह एवं बलिदानी झाला के बिना अधूरा है।
दानवीर, देशभक्त एवं योद्धा भामाशाह का जन्म 23 अप्रैल, 1495 ई. को राजस्थान के कुम्भलगढ़ में हुआ था। उनके पिता भारमल जी साहू रामाशाह एक धनी, देश-भक्त, दानवीर तथा प्रभावशाली व्यक्ति थे। उनके पुत्र भामाशाह को भी देशभक्ति, वीरता एवं दानशीलता विरासत में मिली। वे मुगल शासन को उखाड़ फेंकने के लिए युवा काल से ही प्रयत्नशील एवं अवसर की तलाश में थे। इन्हीं के सहयोग से चुनारगढ़ का एक बनिया हेमू अफगान शेरशाह सूरी का महान सैनिक बन पाया था, जिसने शेरशाह की मृत्यु के बाद अकबर के संरक्षक बैरम खां के विरुद्ध 1556 में पानीपत की दूसरी लड़ाई लड़ी थी, अगर 1556 में हेमू जीत जाता तो भारत में उसका साम्राज्य स्थापित हो जाता।
हेमू की हार के बाद भामा शाह ने मुगलों के विरोधी बप्पा रावल के वंशज मेवाड़ के राणाओं का साथ दिया और जब 1562 में अकबर ने मेवाड़ पर चढ़ाई की तो भाभा शाह ने राणा उदय सिंह को बाप्पा रावल एवं राणा सांगा को वीरता की याद दिलाकर मेवाड़ की रक्षा के लिए उत्प्रेरित किया और स्वयं योद्धा बन कर युद्ध में उतर पड़े तथा मुगलिया सेना को मैदान से खदेड़ दिया। शाहपुर (औरंगाबाद) के नौरंग साह देव एवं शेरशाह के देव किला के कप्तान शेख बिजली खां भी भामा शाह के सहयोगी थे।
भामा शाह ने भीलवाड़ा के भील नेता झाला एवं पठान नेता हमीद सूरी एवं वैश्यों से अपील की-
देश न राजा-रानी का,
यह तो राजा-रंक सबका है।
राष्ट्रहित सोचने करने का, पावन हक हर जन का है ।
जब 1572 में महाराणा प्रताप मेवाड़ की गद्दी पर आसीन हुए, तो अकबर ने धन-दौलत एवं पद का लोभ देकर भामा शाह को अपनी ओर मिलाना चाहा, देशभक्त भामा शाह ने कहा- हम मुगलों के सामने सिसोदिया वंश की शान को झुकने नहीं देंगे और मातृभूमि मेवाड़ की रक्षा अंतिम दम तक करेंगे। भामा शाह ने वैश्य एवं भीलों को मुगलों के विरुद्ध महाराणा प्रताप के नेतृत्व में लाया और अपनी कुल संपत्ति महाराणा प्रताप को, सैनिकों के निर्वहन के लिए सुपुर्द कर दी।
जब अकबर ने अप्रैल, 1576 ई. में मेवाड़ पर चढ़ाई की तो भामा शाह ने कुल खर्च का भार संभाला एवं स्वयं युद्ध में लड़े। हमीद खां सूरी सेनापति और भील झाला महाराणा के अंगरक्षक बने।
18 जून, 1576 को हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप एवं अकबर के बीच घमासान युद्ध हुआ, जिसमें उनके घोड़े चेतक के घायल होने पर महाराणा प्रताप मुगल सैनिकों से घिर गए और एक सैनिक ने ताजधारी महाराणा की गर्दन पर वार करना चाहा। चट वीर झाला ने महाराणा का ताज अपने सिर पर रखकर अपना सिर गंवाया और महाराणा की जान बचा ली। तभी भामा शाह ने भाई शक्ति सिंह को धिक्कारा, जिससे उनका भ्रातृत्व जाग उठा और अपना घोड़ा महाराणा प्रताप को देकर उदयपुर की ओर रवाना कर दिया। वीर भामा शाह और अब्दुल हमीद ने युद्ध की कमान संभाल ली। राजपूत एवं वैश्यों की संयुक्त सेना ने मुगलों से 32 किले छीनकर महाराणा प्रताप के हवाले कर दिए और उनका राजतिलक उदयपुर में कर दिया। हल्दीघाटी युद्ध के बाद अकबर ने उदयपुर पर आामण करने की इच्छा छोड़ दी। जब 19 जनवरी, 1598 को महाराणा प्रताप का निधन हो गया, तो सौ वर्षीय भामाशाह ने कहा, इतिहास महाराणा प्रताप का होता है, मानसिंह का नहीं।
महाराणा प्रताप के निधन से आहत भामा शाह 25 जनवरी 1600 ई. में स्वर्ग सिधार गये और राष्ट्रीयता का एक महान स्तंभ टूट गया।
-प्रो. तारकेश्र्वर सिंह
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