यह मान्यता रही है कि किसी प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का कार्य होता है, लेकिन आज यह मान्यता मात्र चर्चाओं तक ही सीमित रह गई है। अब यदि कोई प्यासा मिल भी जाता है तो लोग उसे पानी पिलाने में कोताही कर देते हैं। आने वाले वर्षों में पेयजल के संकट की भविष्यवाणियां लगातार हो रही हैं। इस तरह पेयजल का जो संकट आ खड़ा हुआ है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अधिक समय नहीं हुआ, वह पीढ़ी अभी जीवित है, जिन्होंने वह दौर देखा जब मात्र मुट्ठीभर अनाज के बदले कोई अन्य सामान दुकानदारों से ले लिया जाता था। फल आदि तौल से नहीं, बल्कि गिनती से ाय-विाय होते थे। घर के दरवाजे पर आया कोई व्यक्ति भूखा नहीं जाता था।
लेकिन अब बदलाव आ गया है, कहा जाता है समय बदल गया है। यही गलत धारणा है। समय हमेशा यथावत रहता है। सूर्य अपने समय से उदय और अस्त होता है। तारे अपने निर्धारित समय से चमकते हैं और अस्त होते हैं। समय तो यथावत है, बदली है तो मनुष्य की धारणा। यही बदली धारणा समय के बदलाव का भ्रम पैदा करती है। वह दिन भी थे, जब नगरों में ही नहीं, कस्बों में ही नहीं, सूने मार्गों तक पर भी प्याऊ लगाये जाते थे, जिससे उस सूने मार्ग पर कभी कोई राहगीर भटकता हुआ आ निकले, तो वह प्यासा न रहे। प्याऊ पर पानी पिलाना जन-सेवा और धर्म का काम समझा जाता था। झोपड़ीनुमा इन प्याऊओं में कुछ आठ-दस पानी से तर टाट से लिपटे मटके रखे रहते थे। जिनमें हमेशा ठंडा पानी भरा रखा जाता था। ऐसा नहीं है कि इन प्याऊओं पर हमेशा ही प्यासों की भीड़ लगी रहती हो, कभी-कभी यदा-कदा चार-छः लोग पानी पीते और फिर घंटों प्याऊ सूना पड़ा रहता, लेकिन पानी पिलाने वाले इस खाली समय में भी उसमें यह सोचकर मौजूद रहते कि न जाने कब कौन प्यासा आ जाए। प्याऊ पर बैठी अम्मा प्याऊ से बाहर निकले नालीनुमा चद्दर में पानी डालती और प्यासा अपने दोनों हाथों की हथेली को जोड़कर अंजुली बनाता और पानी पीता। जब प्यास बुझ जाती तो मात्र अपनी गर्दन हिलाने से पानी आना बंद हो जाता। उस समय पानी पिलाने वाली मां की आंखों की चमक बढ़ जाती। उसे अपने बच्चों को भरपेट दूध पिलाने के बाद जो संतुष्टि मिलती है, उसका अहसास होता। इस काम को वह पुण्य का काम समझती। लोग अपने कंठ को तर करते और साथ ही सफर के लिए सुराही आदि बर्तन को भी प्याऊ से भरकर ले जाते।
सोच में बदलाव आया। यहां तक कि भावनाओं का भी ाय-विाय होने लगा। धारणाएं बदलीं और दोष समय के बदलाव को दिया जाने लगा। हर वस्तु बिकने लगी, उसके साथ ही पानी भी। बस-स्टैण्डों और रेलवे स्टेशनों पर पानी की बोतलों का व्यापार तो होता ही है। हर प्राणी की आवश्यकता पानी का व्यवसाय अब फलने-फूलने लगा है। पुण्य कमाने के स्थान पर अर्थ कमाने की धारणा बन गई है। वैसे पुण्य कमाने के नाम पर यदा-कदा, कहीं-कहीं प्याऊ देखने को मिल जाते हैं। इन प्याऊओं पर कर्मचारी भी तैनात किए जाते हैं। इन कर्मचारियों को भी पुण्य कमाने का भुगतान किया जाता है, पर अब संवेदनाएं मर चुकी हैं। इन प्याऊओं पर अब बच्चों की सेवाएं ली जा रही हैं। प्याऊ लगाने वाले अपने चित्र प्रकाशित कर वाहवाही लूटने में भी पीछे नहीं रह रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि प्याऊ पर बच्चों की तैनाती क्या बाल-श्रम के कानूनों के बाहर नहीं है? बच्चे यदि खेल समझ कर यह कार्य कर रहे हैं तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि उन्हें तैनात किया जाता है तो राज्य सरकारों को भी अपनी आंखें बंद नहीं करनी चाहिए।
अब बढ़ती आबादी और व्यस्त जीवन में मार्गों पर प्यासों को पानी की आज के हालातों में अधिक जरुरत है। वहीं अब पेयजल की उपलब्धि की यह हालत है कि कई शहरों में तो दो-दो दिन पानी सप्लाई नहीं किया जाता। पानी को टैंकरों से खरीदा जाता है। गर्मी के मौसम में पानी के लिए आपस में लड़ाई-झगड़े की घटनाएं भी कम नहीं होतीं, हत्याएं तक हो जाती हैं। पानी के लिए मारा-मारी मची हुई है।
इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है? यह प्रश्न अपने से ही पैदा होता है और अपने से ही उत्तर मिलता है। सस्ता और अधिक उपयोगी होने के कारण खेतों में ट्यूबवेल और घरों में हैण्डपंप लगाकर जमीन के अंदर का पानी खींच लिया गया। हम बारिश के पानी को व्यर्थ बह जाने देते हैं, उसका संग्रह नहीं होता है। पुराने कुओं और बावड़ियों की साफ-सफाई और मरम्मत की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता। नये कुओं और बावड़ियों के निर्माण कराने के प्रति रुचि नहीं रही। बारिश का मौसम समय पर आया और चला गया। कभी सूखा और कभी अतिवृष्टि की स्थिति बनती है। यह स्थिति तो हमेशा से रही है और उससे मनुष्य दो-चार भी होता रहा। लेकिन कम बारिश में भी आवश्यकतानुसार पानी के संग्रह के प्रयास नहीं किए जाते और हम ट्यूबवेल और हैण्डपम्प पर भरोसा करते हैं। समय को दोष देते हैं। धारणाओं के बदलाव के परिणामों को नहीं सोचा। पानी अमूल्य है, उसके संरक्षण और संग्रहण की ओर ध्यान देना होगा, तभी इस समस्या से निजात पाया जा सकेगा। अन्यथा आने वाले समय में पानी के लिए युद्धों की चेतावनी को सही होने से कैसे रोका जा सकता है?
– सुरेश समाधिया
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