रोडवेज बस स्टैण्ड, रेलवे स्टेशन, सब्जी मण्डी, सिनेमा हाल आदि सार्वजनिक स्थानों के आस-पास कूड़े के ढेर से कांच, लोहे, प्लास्टिक व कागज को बीनते बच्चों के झुण्ड हर महानगर-नगर में मिल जाते हैं। बस्ता थामने की उम्र में इन्हें कूड़े से बीनी हुई चीजों का बोरा ढोना पड़ता है। ये बच्चे नहीं जानते कि स्कूल किस चिड़िया का नाम है। इन्हें बचपन से ही श्रम की ओर धकेल दिया जाता है। चाय की दुकानों, होटलों, ईंट भट्ठों, कांच की चूड़ी बनाने वाले कारखानों, आतिशबाजी उद्योग, ब्रश बनाने के कारखानों में कितने ही बच्चे मजदूरी करते नज़र आते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में तो गेहूं की कटाई, बुवाई और गन्ने या धान की बुवाई-कटाई के समय स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति 25-30 प्रतिशत ही रहती है। लेखक का अनुभव है कि ऐसी स्थिति में बच्चे श्रम कार्यों में लगा दिये जाते हैं। खेतों में मजदूरी करने के लिए अभिभावक ही उन्हें अपने साथ ले जाते हैं। इन्हें मजदूरी तो लगभग आधी ही मिलती है किन्तु काम ये पूरा करते हैं। खेतों में श्रम कार्य के बदले प्राप्त मजदूरी परिवार में काम आती है। इनके तन पर पूरे कपड़े तक नहीं मिलते। कारण गरीबी ही है। बाल श्रम, इन बच्चों से इनका बचपन छीन लेता है। स्कूल, खेल इनकी कल्पना में ही रह जाता है। कूड़े के ढेर से रीसाइकिलिंग थिंग्स बटोरने वाले बच्चों में समय से पूर्व ही ऐसी कई बीमारियां घर कर जाती हैं जिन्हें सारी उम्र ही उन्हें ढोना पड़ता है। कूड़े के ढेरों से कई ऐसे संक्रामक रोग उन्हें जकड़ लेते हैं कि बचपन व जवानी का उन्हें पता ही नहीं चलता। सीधे बुढ़ापे में ही कदम पड़ते हैं। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि इन बच्चों को श्रम कार्यों में इनके अभिभावक ही धकेलते हैं, जहॉं थोड़े से धन के बदले इनसे पूरा दिन जमकर काम लिया जाता है। प्यार के दो बोल तो शायद ही इनके कानों में जाते हों। लानत-मलामत और गालियों के साथ ही इनसे बात शुरू की जाती है। काम में जरा-सी देर हुई कि इन बच्चों की मॉं-बहनों से संबंध जोड़ने वाले जुमलों के साथ इनको पुकारा जाता है। इन परिस्थितियों में इनका कुंठित हो जाना स्वाभाविक है। ये कुंठित मन धीरे-धीरे नशे की ओर भी झुक जाते हैं। इन सबके लिए अभिभावक तो जिम्मेदार हैं ही, वे लोग ज्यादा दोषी हैं जो इन्हें कम मजदूरी के लालच में काम पर लगा लेते हैं। हालांकि इसके लिए श्रम कानून बने हुए हैं किन्तु वे सब किताबों तक ही सीमित होकर रह जाते हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी स्तर से लेकर व्यक्तिगत स्तर तक सभी इसके प्रति सजग हों और बाल श्रम के कारण बच्चों का बचपन न छीनें, इस दिशा में कुछ सार्थक पहल करें। हम सबका दायित्व है कि इनकी दशा परिवर्तन हेतु कुछ प्रयास करें ताकि राष्ट्र के भावी नागरिकों के बालपन की स्वाभाविकता बनी रह सके।
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