चिंतामणि बहुत झल्लाए हुए थे। किसी परिचित का हॉस्पिटल बिल अपने समाजवादी झोले में अन्यान्य अल्लम गल्लम लिटरेचर के साथ कुछ उसी तरह जमा करके रखा हुआ था, जैसे ग़रीबी की रेखा से नीचे वाले परिवारों के सदस्य, सरकारी फ़ाइलों में पड़े रहा करते हैं। बड़े दिनों बाद मिले थे। सो छूटते ही बोले, गुरू, तुम अस्पतालों की धंधा-धॉंधली पर कुछ क्यों नहीं लिखते? हमने कहा, चिंता, जल में रहकर मगर से बैर नहीं रखा जाता। आज के जमाने में हर किसी को बीमार पड़ना ही पड़ता है। कभी हम पड़ गये तो अस्पताल वाले…। चिंता इस जवाब से और झल्ला गये। बोले, गुरू, जल और घड़ियाल की बात ही कहॉं है। हम तो आपसे चिकित्सा के नाम पर मची लूट की बाबत लिखने को कह रहे हैं। हमने महसूस किया कि चिंता वाकई सीरियस हैं। अस्तु पूछा, कुछ प्रमाण-वमाण भी है या ऐसे ही हॉंके जा रहे हो? जवाब में चिंतामणि ने झोले में से वह बिल निकाला और हमारे सामने रख दिया। प्रथम दृष्टया हमें उसमें कोई खास बात नहीं दिखी। इसलिए कह दिया, इसमें नया क्या है? इस सवाल से चिंता पर गुस्सा कुछ और चढ़ बैठा। बोले, गुरू, ग़ौर से देखो। बिल में एक दिन की अस्पताल-यात्रा का ब्योरेवार वर्णन है। सबसे पहले था रूम-रेन्ट उसके बाद सबसे बड़ी रकम थी विजिटिंग डॉक्टर्स की फ़ीस की। शेष नर्सिंग वग़ैरह तथा दवाओं वग़ैरह का हिस्सा था। कुछ 1800 की बिल रकम में 900 रुपये रूम-रेन्ट के दिखाते हुए चिंता बोले, गुरू, अच्छे-खासे होटल का भी रूम किराया इतना नहीं होता। यह तो अस्पताल है। हमें भी बात ज़रा अटपटी लगी। डॉक्टर की फ़ीस के मद में 600 रुपये की एन्ट्री थी। चिंता बोले, गुरू, ये चैरिटेबल और मेमोरियल अस्पताल वाले दवाखाना क्या होटल की तर्ज पर चलाते हैं? हमने कहा, हॉं, इसमें बुराई क्या है? बिल्ंिडग को बीमारी से बचाना होता है न। इसलिए बिस्तर, कमरा महॅंगा हो जाता है। हमारी दलील सुनकर चिंता का पारा जरा और चढ़ गया। बोले, गुरू, क्या आपको पता है कि मरीज़ के साथ क्या सलूक होता है? हमने कहा, हॉं, मालूम है। मरीज़ को खानगी अस्पताल चलाने वाले बकरीद के रोज़ का ब़करा मानकर ट्रीट करते हैं। इसमें ़कसूर डॉक्टर बेचारों का नहीं, मैनेजर का ज्यादा होता है।
चिंता ने बताया कि हंगामा मचाने पर प्रबंधकों ने उन्हीं को अस्पताल का एमडी बनकर देखने की पेशकश की तो वह फौरन राजी हो गये। लिहाज़ा, जिन दिनों चिंता की एमडीगीरी चल रही थी, हमने एक ज़रूरतमंद रोगी को सिफ़ारिशी चिट्ठी के साथ उनके पास भेजा। एमडी के इशारे पर मरीज़ को पहले जनरल वार्ड में रखा गया। वहां ड्यूटी डॉक्टर ने उन्हें देखा – छुआ और ग्लूकोज वगैरह चढ़वा दिया।
तीन घंटे बाद कंसल्टिंग डॉक्टर आया। बहैसियत एमडी चिंता ने उससे पूछा, आईसीयू में भर्ती किया जा सकने वाला कोई मरीज़ आज आपको मिला कि नहीं? डॉक्टर ने नकारात्मक सिर हिला दिया तो चिंता को बड़ी चिंता हुई। उन्होंने जनरल वार्ड के एक पेशेन्ट को आईसीयू में शिफ्ट करने को कहा। डॉक्टर ने पूछा, क्यों? बहैसियत एमडी चिंता बोले, कल सारा दिन आईसीयू खाली रहा। 16 बिस्तर हैं। पूरे भरे रहते हैं तो स्टाफ़ का उस रोज़ का खर्चा आराम से निकल कर उल्टे कुछ बचता भी है। खाली रहने पर अस्पताल को चलाना अपनी लाश खुद अपने कंधे पर ढोने जैसा लगता है। इस स्थिति से निपटने के लिए क्या किया जाए, इस बाबत विमर्श के लिए शाम को मीटिंग रखी गई है।
मीटिंग में एमडी ने आरएमओ वग़ैरह डॉक्टरों से कहा कि कोई केस भर्ती होने आए तो उसे किसी न किसी बहाने उस कमरे की यात्रा ज़रूर करवा देनी चाहिए जिसका रेन्ट ज्यादा होता है। घंटे दो घंटे के लिए ही सही, वहॉं हर मरीज़ को एक बार ज़रूर घुमाया जाए। एमडी की बात पर एक नवनियुक्त डॉक्टर ने पूछा, ज़रूरत हो चाहे नहीं। एमडी बोले, हॉं, बिल्कुल ठीक समझे। बिल्ंिडग किराए की है। इमारत का किराया, बड़े और छोटे कमरों के वसूल हुए किराये से निकलना चाहिए। जनरल वार्ड से ज्यादा किराया चूँकि आईसीयू का होता है, इसलिए जब किसी मरीज़ को वहॉं रखा जाता है तो उसके घर वालों पर यह असर पड़ता है कि मरीज़ वाकई सीरियस है। ऐसी स्वीकारयोग्य सीरियसनेस क्रिएट करके ही तो कंसल्टिंग एक्सपर्ट को बुलाया जा सकता है। आईसीयू में किसी मरीज़ को दो घंटे ही सही, रखकर पूरे दिन का किराया वसूला जा सकता है। दूसरे ने पूछा, सर, अगर वहॉं के सारे बेड भरे हों तो? खाली होने का इंतज़ार बना रहना चाहिए। इस पर नया-नया जुड़ा एक डॉक्टर बोला, लेकिन सर, यह तो मरीज़ के साथ सरासर अन्याय है। एमडी बोला, नहीं, यह धंधा है। मरीज़ के घरवाले न राज़ी हों तो उनसे कहना चाहिए कि मरीज़ है आपका; मर्जी है आपकी। हम तो जैसा जरूरी समझेंगे वैसा इलाज करेंगे। करवाना है तो कराओ नहीं तो डिस्चार्ज करा लो।
और भी बहुत कुछ ज़रूरी होता है। रोज़ाना पैथालाजिकल टेस्ट जरूरी होना चाहिए। मरीज़ को पता लगते रहना चाहिए कि इलाज को वह कितना रिस्पांड कर रहा है। और इसका पता जॉंच-पड़ताल से ही चलेगा। एमडी बने चिंतामणि का जवाब सुनकर नवागंतुक डॉक्टर चुप हो गया। उसे यह समझ में आ गया कि मरीज़ को चंगा करने की भरसक कोशिश करने का उसका नैतिक संकल्प, खानगी, चैरिटेबल और मेमोरियल अस्पतालों के साथ जुड़ कर सेवा करते वक्त हास्पिटल की सेहत के साथ विलीन हो जाता है। मोटो होता है- अस्पताल चंगा तो मरीज भी चंगा, भले पूरी तरह नंगा होकर ही सही।
इस तरह के नीरस, अरण्य रोदन से चूंकि हमारा दिल ऊब गया था, इसलिए हमने चिंता से पूछा, एमडी बनकर जो अनुभव आपने प्राप्त किये हैं उनकी एप्लीकेशन्स के बारे में अब आपका क्या विचार है?
चिंता बोले, गुरू, सारांश कुछ-कुछ यूँ निकलता हुआ-सा लगता है कि अस्पताल का मतलब होता है धर्मराज का दरबार। और उस दरबार की अपनी विशेषता है। जैसे यमदूत को यमराज की आज्ञा-पालन करनी होती है। डॉक्टरों को भी एमडी वग़ैरह की आज्ञा के अनुसार मरीज को नर्क में भी स्वर्ग का सुख पहुँचाना पड़ता है। यमदूत का काम लोगों की आत्मा को बांध कर चित्रगुप्त के पास ले जाना भर है। ज्यादा क्या कहें गुरू, आप खुद बहुत समझदार हो। समझ लो। जब हम एमडीगीरी नहीं करते थे, तो राई बराबर बिल भी, पहाड़ जैसा दिखता था। एमडी बनते ही पर्वत-बिल राई लगने लगता है। मन करता है कि मजबूरी के मारे आए-गये बेचारे मरीज़ को अस्पताल का त्राता और उसके परिजनों को दाता मानकर उसे यथासाध्य हमेशा अपने पास रखे रहें। बस।
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