भारतीय खाद्य भंडार में पंजाब और हरियाणा का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। इस साल गेहूं के उत्पादन को लेकर भी स्थिति काफी उत्साहजनक रही जबकि विश्र्व स्तर पर खाद्यान्न संकट निरंतर गहरा होता चला जा रहा है। देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनकी दृष्टि वित्तीय स्थिति पर भी गहरी रहती है, किसानों की मुक्त कंठ प्रशंसा बेवजह ही नहीं कर रहे, उनकी विपरीत परिस्थितियों में लगन, मेहनत और पक्का इरादा सुखद परिणाम लाया। परंतु एक तरफ सत्ता प्रतिष्ठानों की वजह से ध्वस्त होती जन वितरण प्रणाली, दूसरे, अधिक उत्पादन के चक्कर में बेहिसाब प्राकृतिक सम्पदा का दोहन हमारे वर्तमान और भविष्य को चौपट कर रहा है। असलियत तो यह है कि त्यों-त्यों मानवीय शोषण तो बढ़ा ही है, प्राकृतिक सम्पदा का विनाश कहीं ज्यादा होता चला गया।
हम हरित क्रांति की प्रशंसा करते थकते नहीं। एक वक्त में यह जरूरी भी लगता रहा परंतु आज यदि कृषि वैज्ञानिक से इसके प्रभावों पर बात करेंगे तो उनका जवाब होगा-हरित क्रांति से मिला है हमें जहरीला पानी, शक्तिविहीन होती जमीन और जहरीली हवा। 1960-70 के दशक में हरित क्रांति का आरंभ हुआ और फिर कृषि की शक्लोसूरत बदलने में पॉंच-सात साल का ही वक्त लगा था। परंतु आत्मनिर्भर होने पर भी हमें चैन नहीं मिला। हम धरती का दोहन पूरी बेरहमी से करते रहे। हरित क्रांति को आज तक महान गौरव का मामला बताते हुए आज तक न तो इसका दूसरा पक्ष देखा न उसे शोषणमूलक मुनाफाखोर स्वार्थ की सेवा लगने दी जिसके तहत सोना उगलती जमीन से प्राकृतिक शक्ति छीन ली, कीटनाशक दवाओं का ऐसा अंधाधुंध प्रयोग किया कि जहर और जहर के सिवा कुछ बचा ही नहीं। सूत्र बताते हैं कि 1958 तक यदि भारत पांच हजार टन कीड़ेमार दवाओं का उत्पादन और उपयोग करता रहा तो 2001 तक लगभग सतानबे हजार मी.टन का उत्पादन करने लगा था। दुर्भाग्य है कि हमारे भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे नेताओं, योजनाकारों, तिजारत और मुनाफे के चक्कर में फंसे धनपतियों और बड़ी जमीन के मालिकों की दृष्टि चीजों के दूसरे पक्ष तक पहुँच ही नहीं पाती। सत्ता के उन्माद और निर्ममता का अंजाम अतियों तक पहुँचता है। मनुष्य को मित्र और शत्रु का पता होता है, हम पेस्टीसाइड के अंधाधुंध उपयोग के वक्त इस विवेक को बिल्कुल भुला बैठते हैं और इंडियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के इस परिणाम तक पहुँचते हैं कि छप्पन प्रतिशत खाद्य पदार्थ विषाक्त होने की वजह से दूषित हैं। बीस प्रतिशत खाद्य पदार्थों में पेस्टीसाइड की मात्रा अधिकतम उचित स्तर से कहीं अधिक उपलब्ध हो रही है। इसी से धरती के नीचे का जल काफी प्रभावित हो रहा है। यह सारा सिलसिला इतना निरंकुश है कि कोई सोचने तक को तैयार नहीं, इतनी तेज गति में है कि यदि कोई पुकार भी ले तो आवाज सुनने का वक्त नहीं है। पूंजी ने ऐसी अंधाधुंध दौड़ में दाखिल कर दिया है कि सरपट भागते हुए मानव जाति के बारे में या जीवन के स्वाभाविक व्यय के बारे में सोचना बंद कर दिया गया है। हम प्राकृतिक जीवन नहीं, नकली जीवन जीने के आदी हो रहे हैं जो समाज, संस्कृति के लिए तबाही लाने वाला मंजर है। उत्तर औपनिवेशिक स्थितियों द्वारा संचालित उपभोक्तावाद ने हमें एक ऐसी सुरंग में दाखिल कर दिया है कि हमारी स्वाधीनता भी उसी अंधकार में घुट कर रह गई है और हम सुरंग में रेंगते रहने को आधुनिकता ही नहीं उत्तर आधुनिकता मान रहे हैं और विषमताकारी हालात, अन्याय, शोषण के खिलाफ आवाज उठाना भूलते जा रहे हैं।
एक सौ से ज्यादा देशों के वैज्ञानिक हमें चेतावनी दे चुके हैंु कि जिस लालची और निर्मम रवैये से हमने प्राकृतिक संसाधनों को लूटा है उससे अब हमारे पास इस धरती को धरती बनाये रखने के लिए ज्यादा से ज्यादा तीन दशक का समय ही रह गया है। इसका सीधा मतलब है कि यदि अब भी नहीं संभल पाये तो विनाश निश्र्चित है। परमाणु बम, बड़े बांध, कारपोरेट वैश्र्वीकरण पर हमारा रवैया आज तक स्पष्ट नहीं हो पाया। इसलिए जो आवाज उठाते हैं, अकेले पड़ जाते हैं और राज्य सत्ता का निशाना बनते हैं। हमने एडवर्ड सईद, हार्वड जिन नाय योमस्की को ठीक से सुना नहीं। भारत में मेधा पाटकर, अंरुधति राय की पुकार भी हमें सुनाई नहीं देती। ये तो कुछ नाम हैं। आप अपने आपको, अपने समय को, संवेदहीनता को परिभाषित तो करें। बाप-दादा के समय और अपने समय को आमने-सामने रखें, फर्क साफ नजर आ जायेगा। पता चल जायेगा कि हम कितने खुदगर्ज होते चले जा रहे हैं।
साल में दो बार पराली जलाने के बहाने धरती की छाती जला देते हैं। कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग ने हमें आँखों की, पेट की, चर्म रोग की, यहॉं तक कि कैंसर जैसी बीमारियॉं दी हैं। मालवा क्षेत्र की स्थितियों से आप आँखें नहीं चुरा सकते। कैंसर ने कितने परिवार तबाह कर दिये, इसकी जानकारी पूरे भारत को होनी चाहिए। उन्हें कैंसर किसी ग्रहचाल या बुरी किस्मत के कारण नहीं हुआ। नरमे की पट्टी के लिए उपयोग में लायी गई पेस्टीसाइड की वजह से उनकी दयनीय हालत हुई है। वहॉं इस नामुराद बीमारी के उपचार के लिए सरकारी स्तर पर संसाधन नहीं हैं। बच्चों का रिश्ता करते समय वहॉं कोई जन्मपत्री नहीं मिलाता, पहले यह सवाल करता है कि घर में किसी को कैंसर तो नहीं।
मुक्त बाजार ने हमें एक के साथ एक फ्री का रास्ता दिखाया है। अब कीटनाशकों के साथ बीमारियॉं मुफ्त में मिल रही हैं। बेकाबू महंगाई में रातों को सोते-सोते जाग उठने की बेचैनी मुफ्त में मिल रही है। बच्चों और माता-पिता के बीच चीजों को लेकर मनमुटाव मुफ्त में मिल रहा है। शहर गॉंव पर संदेह कर रहा है कि किसानों को सभी कुछ मिल रहा है। गॉंव शहर पर संदेह कर रहा है कि उसका सदियों से शोषण हो रहा है और मिला क्या पिछड़ापन? विद्वान कह रहे हैं कि हमने अनेक तरह का जहर पचाने की क्षमता हासिल कर ली है। परंतु अब जहर पचा पाने की क्षमता जवाब देने लगी है। गॉंव और शहर दोनों में पानी को लेकर हाहाकार मचने की नौबत आ गई है। पानी के सैम्पल बार-बार फेल हो रहे हैं। गॉंवों के तालाब उजड़ गये हैं और शहर में पानी की संभाल पर कभी समुचित ध्यान नहीं दिया गया। पेड़ों को काटते चले जाते हुए हमने कभी नहीं सोचा कि कहीं कुल्हाड़ी अपने पॉंव पर तो नहीं मार रहे? लेकिन अब संभल न पाये तो फिर संभलने का अवसर नहीं मिलेगा।
– तरसेम गुजराल
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