ईश्र्वरचंद्र विद्यासागर (26 सितंबर, 1802-29 जुलाई, 1819) न केवल विद्या के सागर थे, बल्कि महान गुणों के धनी थे। विधवा विवाह का प्रचलन उस जमाने में करना एक बड़ा ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। इसकी तैयारी करने के लिए उन्होंने संपूर्ण धर्मशास्त्रों का गहन मंथन किया, मनन किया तथा पाया कि विधवा-विवाह पूर्णतः धर्मसम्मत है। शास्त्रों में इसका कहीं विरोध नहीं है।
उन्होंने “वामा बोधनी’ नाम की एक पत्रिका में नियमित अपने विचार प्रकाशित करने आरंभ किये। एक बड़ा ग्रंथ भी लिख डाला। पुरातनपंथियों ने विद्यासागर पर आलोचनाओं तथा अपशब्दों की बौछार कर डाली। कई कट्टरपंथी उन्हें मार डालने तक की धमकी देने लगे। शनैः शनैः उनके तर्क एवं शास्त्रोक्त प्रमाण लोगों के गले उतरने लगे। ईश्र्वरचंद्र विद्यासागर ने स्वयं अपने पुत्र का विवाह एक विधवा से किया। सैकड़ों विधवा-विवाह उन्होंने अपने हाथों से कराए।
जनमत का समर्थन सरकार के पास पहुँचाया और अंत में जुलाई, 1856 में विधवा-विवाह को वैध माने जाने का कानून पास हो गया। इसी तरह उन्होंने बहुविवाह के खिलाफ भी आंदोलन चलाया। यद्यपि वे अपने जीवनकाल में कानून न बनवा पाए, पर आंदोलन को गति देने में सफल हुए। धन्य हैं वे, जिन्होंने सभ्य समाज की नींव रखी।
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