लेकिन इसके साथ ही यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि क्या यह ढॉंचा ही वास्तविक लोकतंत्र की पहचान है? क्या यह ढॉंचा उन संकल्पों को विकसित करने में समर्थ है जो लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा के साथ जुड़ाव रखता है? क्या इस ढॉंचे ने समाज के दबे-कुचले लोगों को उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के अनुरूप पहचान दी है? क्या देश का आम आदमी जिसे लगभग प्रत्येक राजनीतिक दल अपनी राजनीति के केन्द्र में रखने की दावेदारी प्रस्तुत करता है, ऐसा कुछ महसूस करने की स्थिति में है कि उसकी सांसों को एक खुला आकाश मिला है, उसके पॉंव एक ठोस धरातल पर टिके हैं और उसकी जिन्दगी के रास्तों पर फूल नहीं तो कॉंटे भी नहीं बिछे हैं?
यह अच्छी तरह समझना होगा कि अगर इन सवालों के पक्ष में हाथ खड़े किये जाते हैं, तो संख्या में वे गिने-चुने तो होंगे ही, इसके अलावा वे हाथ या तो सत्ता के नियामकों के होंगे अथवा सत्ता में भागीदारी निभाने वालों के होंगे। इन नियामकों और सत्ता-भागीदारों की हालत सावन के अंधे जैसी भी हो सकती है जिसे हर कहीं हरियाली ही हरियाली नज़र आती है। इनकी निगाह में देश का लोकतंत्र दिनोंदिन मजबूत हो रहा है, सर्वत्र खुशहाली है और देश प्रगति-पथ पर अग्रसर होता हुआ वैश्र्विक स्तर पर अपने को स्थापित कर रहा है। दरअसल यह भरे-पेट लोगों की भाषा है। उन लोगों की भाषा है जिनके पास अपने हितों को सुरक्षित रखने का हुनर है और जो अपने हितों की पूर्ति के लिए लोकतांत्रिक मशीनरियों के इस्तेमाल में माहिर हैं। उनकी एक ही अवधारणा है कि उनकी तरक्की पूरे देश की तरक्की है, वे खुशहाल हैं तो देश खुशहाल है और सही मायने में उनकी सुरक्षा ही देश की सुरक्षा भी है। लोकतंत्र इनके लिए सत्ता-सिंहासन तक पहुँचने की एक सीढ़ी भर है। वे अपने को देश की संवैधानिक व्यवस्था से ऊपर मानते हैं। इस व्यवस्था में छेद कर वे अपने हितों का पोषण करने की कला जानते हैं। निश्र्चित रूप से उनके हाथ सवालों के पक्ष में ही उठेंगे।
सवाल के विपक्ष में उठे उन बेशुमार हाथों की गणना नहीं की जा सकती जो बेबस भाव से देश के हर गली-कूचे में लोकतंत्र के रेशमी परिधान के ब़िखरे चीथड़ों को निहार रहे हैं। सच यह भी है कि इनकी अंतिम अभीप्सा लोकतंत्र है और लोकतंत्र के फलने-फूलने की स्थिति में ये अपनी बदहाल और बेहाल जिन्दगी की मुक्ति भी देखते हैं। लेकिन ये वे लोग हैं जो हर तरह से बेबस और लाचार हैं। ये किसी क्रांतिकारी बदलाव की भूमिका नहीं लिख सकते और न सत्ता के गिद्धों से अपनी अभीप्सा की लाश को सुरक्षित बचा सकते हैं। कहने को तो देश का यह आदमी लोकतंत्र की आत्मा है और संविधान प्रदत्त सभी ह़क-ह़कूकों में बराबर का हिस्सेदार है। लेकिन असलियत में वह कुछ लोगों के सत्ता-समीकरण की बिसात पर बिछा हुआ मोहरा भर है, जिसकी हैसियत सिर्फ वोट के तराजू पर तौली जाती है। मज़ाक तो यह है कि वह इतनी-सी हैसियत पाकर भी विभोर है। अपने सारे दुःख-दर्द वह उस समय भूल जाता है जब चुनावी मौसम में सजे-सजाये मंच से उसे कोई धवल वस्त्रधारी लोकतंत्र का बादशाह कह कर पुकारता है। तब वह मोर की तरह नाचने लगता है तथा अपने बदसूरत पैरों की ओर न देख कर अपने पसरे हुए रंगीन पंखों को ही विमुग्ध भाव से निहारता रहता है। उसे अपनी हकीकत से दो-चार तब होना पड़ता है जब उसके भूखे पेट की अंतड़ियॉं उसे हकीकत से रूबरू कराती हैं। तब वह चीखता है, चिल्लाता है और लोकतंत्र की दुहाई भी देता है। लेकिन उसके इस अरण्य-रोदन की आवाज न तो सत्ताधारियों के कान तक पहुँचती है और न उसके अमले तक।
हमारा लोकतांत्रिक निजाम देश की आजादी की इकसठवीं दहलीज पर खड़ा है। एक लम्बा अरसा गुजर जाने के बावजूद हमने सिर्फ एक ढॉंचा भर खड़ा किया है। एक प्राणहीन ढॉंचा जो किसी भी अर्थ में उन अभीप्साओं को पूरा नहीं कर सकता जो आम आदमी की चाहत है। चुनाव-दर-चुनाव हम गुजरते हैं और छाती ठोंक कर कहते हैं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं। दरहकीकत ये चुनाव भी राजनीतिक दलों के हथकंडों के शिकार हैं। आम आदमी के सामने एक अजीब किस्म की विकल्पहीनता खड़ी होती है और उसका गणित चक्राकार घूमता रहता है। अब यह विकल्पहीनता नहीं तो क्या है कि कल उसने नालायक समझ कर सत्ता की कुर्सी से जिसे बेदखल किया था, उसे फिर सत्ता की कुर्सी पर वापस बुलाना पड़ता है। वह इसलिए कि जो कुर्सी पर मौजूद है वह उससे भी बड़ा नालायक समझ में आने लगता है। लोकतंत्र ने चुनाव-दर चुनाव उसकी नियति की झोली में अब तक यही उपहार डाला है। नियति यह भी है कि उसे डंसने में अब तक परहेज न नागनाथों ने किया है और न ही सॉंपनाथों ने किया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर पूंजीपतियों, माफियाओं, पुलिस तथा लालफीताशाही का एक गठजोड़ उसकी छाती पर लाद दिया गया है। राजनीति ने आज तक उसकी थाली में जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद तथा कुछ भावनात्मक मुद्दों के अलावा कुछ नहीं परोसा। चुनाव-दर-चुनाव लोकतंत्र का कारवॉं आगे बढ़ता जा रहा है, लेकिन इसे खींच कौन रहा है? पैसा, बाहुबल अथवा सस्ते भावुकता भरे नारे!
यह स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि राजनीतिशास्त्र के इतिहास में लोकतंत्र की अवधारणा से अधिक मानवीय कोई राज्य व्यवस्था नहीं रही है। इतिहास में पहली बार इसी एक व्यवस्था ने मनुष्य को मनुष्य होने की गरिमा से विभूषित किया है। लोकतंत्र ने राज्य व्यवस्था को जनोन्मुख बनाया है तथा लिंग, जाति और संप्रदाय के विभेदों को इन्कार करते हुए सबको समानता और स्वतंत्रता के अधिकार दिये हैं। इसके साथ ही लोकतंत्र ने अपने को एक नैतिक आचार-संहिता से भी जोड़ा है और अपने में उन सभी मूल्यों को समाहित किया है जो मानवीय विकास के पक्षधर हैं। इस निष्पत्ति के साथ वह उच्च गुणवत्ता वाले एक ऐसे नैतिक समाज की परिकल्पना है जो वैचारिक मतभेदों को भी सहिष्णुता से ग्रहण करता है। इस अर्थ में अगर हम किसी लोकतांत्रिक समाज की परिकल्पना करेंगे तो वह नैतिक तो हो सकता है, लेकिन अपने किसी अर्थ में राजनैतिक नहीं हो सकता।
हमारे लोकतंत्र के साथ जो विसंगतियॉं उभरी हैं, उनके पीछे इस कारण को अवश्य पहचाना जा सकता है कि हमने अपनी सामाजिक नैतिकता को राजनीति के हाथों सौंप दिया है। अगर राजनीति सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों की पक्षधर होती तो संभवतः इतनी विकृतियॉं और विसंगतियॉं पैदा नहीं होतीं। लेकिन राजनीति को हथियार बनाकर शोषण-विधा के रचनाकारों ने इसे सत्ता-केन्द्रित बना दिया। फलतः देश में लोकतंत्र की सार्थक भावभूमि तैयार नहीं की जा सकी। अत्यंत निम्न कोटि के छोटे-छोटे गुटीय और दलीय स्वार्थ बड़े मूल्यों को लगातार नेपथ्य के हवाले करते जा रहे हैं। साथ ही लोकतंत्र के माध्यम से किसी अखंड राष्ट्र चेतना का निर्माण अब वैचारिक सीमा के बाहर ठेल दिया गया है। इसका दुष्परिणाम इस रूप में सामने आ रहा है कि जहॉं देश की छवि एक परम शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में प्रदर्शित होनी चाहिये थी, वहॉं अलग-अलग समूहों में विभाजित समाजों की घिनौनी प्रतिछाया के दर्शन हो रहे हैं।
सैकड़ों साल की गुलामी के बाद देश की आज़ादी ने यह आशा ज़रूर जगाई थी कि आजाद भारत अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को समाज के सबसे उपेक्षित-वंचित तबके तक ले जाएगा और एक समग्र राष्ट्रीयता को पहचान दी जा सकेगी। लेकिन निहित स्वार्थों ने देश के “जन’ को तंत्र के जंजाल में उलझा दिया। यह तंत्र अब भ्रष्ट नेताओं, नौकरशाहों और माफियाओं का ऐशगाह बन गया है। जनहित के दावे और उन्हें चरितार्थ करने वाली योजनायें भ्रष्टाचार की वैतरणी में डूबती चली जा रही हैं। देश का आम आदमी बाजारवादी व्यवस्था में अपने को बेचकर अपने लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाने में भी असमर्थ है। फिर भी तुर्रा यह है कि देश तरक्की कर रहा है। इस तुर्रे को अगर किसान-आत्महत्याओं की तराजू पर तौल दिया जाए तो सारी असलियत अपने आप सामने आ जायेगी। पिछले 2004 के चुनावों में भाजपा ने “भारत उदय’ का नारा दिया था, किस अर्थ में कितना “उदय’ हुआ, इसका गुणा-गणित करते आम आदमी ने उसके खिलाफ वोट किया। तब जो संप्रग की सरकार बनी उसने वादा किया कि वह आम आदमी के हितों की रक्षा करेगी, कितना किया वह भी सबके सामने है। अब 2009 के चुनावों में जनमत अगर संप्रग को नकारेगा तो उसे फिर उसी राजग को वापस बुलाना पड़ेगा जिसे वह खारिज कर चुका है। पता नहीं इस देश की लोकतांत्रिक अवधारणा का सच कब तक इस राजग-संप्रग के विकल्पों के बीच झूलता रहेगा।
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