मीठा जल हमारे लिए असाधारण द्रव साधन है। हमारे देश के 0.72 मिलियन हेक्टेयर का क्षेत्र नैसर्गिक सरोवरों से उपलब्ध है। कृत्रिम तालाबों, झीलों और बांधों में भी उतना ही मीठा जल उपलब्ध है। मानव जीवन के लिए मीठा जल उचित मात्रा में सेवन करना आवश्यक है। बशर्ते यह बैक्टीरिया और रासायनिक पदार्थों से युक्त न हो। विभिन्न जलस्रोतों, जैसे नदी व नालों से निकलने वाला पानी, क्षार की मात्रा से शैवाल की वृद्धि के फलस्वरूप दुर्गंध देने लगता है, जो हमारे लिए सेवन लायक नहीं होता। शुद्ध मीठा जल उपलब्ध होना हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, लेकिन जनसंख्या विस्फोट के फलस्वरूप यह नैसर्गिक संसाधन लगभग दूषित होने के कगार पर हैं। मीठे पानी के ये स्रोत, जो हमारे पीने एवं सिंचाई के उपयोग के लिए महत्वपूर्ण हैं, तीव्र गति से प्रदूषित हो रहे हैं।
कारखानों से निकलने वाले पानी का शुद्धिकरण किए बगैर नालों में बहाने से जल दूषित हो रहा है। चमड़ा, शराब, रासायनिक प्लांट और कागज की मिलें तो जल को अधिक दूषित करती ही हैं, घर का कचरा, घर का गंदा पानी भी हमारे परंपरागत जलस्रोत तालाबों, झीलों और नदियों के मीठे जल को प्रदूषित करता है। अतः समय की मांग है कि मीठे पानी की शोधन प्रक्रिया पूरे देश में प्रारम्भ की जानी चाहिए। बांध चाहे नदी पर निर्मित हों अथवा कृत्रिम जलाशय बनाकर बनाये गये हों, उनका परोक्ष व अपरोक्ष प्रभाव उनके निकट रहने वाले जीव-जन्तुओं पर पड़ता है। जल प्लवक, जल-जन्तु वर्ग एवं मानव हेतु दूषित जल को शुद्ध करना परम आवश्यक है। कारखानों एवं अन्य विभिन्न मार्गों से निष्कासित दूषित जल तथा नगरों एवं महानगरों द्वारा जो जल और मल निकलता है उसकी जॉंच से, विश्र्लेषण करने से इससे उत्पन्न होने वाली व्याधियां, जैसे मलेरिया आदि का सहज ही पता लगाने तथा रोकने का सार्थक परिणाम आने की सम्भावनाएं बन सकती हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि दूषित जल के बारे में निदान करने हेतु समस्त राज्यों में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना हो जाने के उपरान्त भी शुद्ध जल के विभिन्न स्रोतों को स्वच्छ एवं शुद्ध बनाने हेतु प्रभावी एवं त्वरित कार्रवाई न होने के कारण देश के लगभग 70 प्रतिशत नागरिक अस्वच्छ जल का सेवन करने की मजबूरी के फलस्वरूप विभिन्न व्याधियों के शिकार हो रहे हैं।
राष्ट्रव्यापी ऐसी “कार्ययोजना’ का निर्माण होना चाहिए कि ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्र में नदी और नालों में कम से कम प्रदूषित जल का प्रवाह हो। जिससे इनके आसपास का नैसर्गिक सन्तुलन यथावत् बना रह सके। देश में मानसून की वर्षा न होने से नैसर्गिक सरोवर और तालाब आदि सूख जाते हैं। ऐसी स्थिति में मानसून की वर्षा होने पर उनमें जल संग्रह की क्षमता पूर्व की भांति नहीं रह पाती यानी सूखी मिट्टी में अधिकतर जल सूख जाता है और तालाब में पूरे वर्षभर पानी न रहने की स्थिति परिलक्षित होने लगती है। अतः प्रत्येक नागरिक, ग्राम पंचायत एवं सरकार का कर्त्तव्य है कि तालाबों में 30 प्रतिशत बरसात का पानी संकलित ही रहने दें। भूजल निकालने हेतु हैंडपंपों का अत्यधिक प्रचलन गांवों, कस्बों एवं शहरों में हो रहा है। लेकिन उनसे उतना ही दोहन करें जितना हमारे लिए आवश्यक है अन्यथा भूजल स्तर नीचे की ओर होने लगेगा। इसके लिए सार्वजनिक कूप मीठे जल-आपूर्ति के लिए उपयुक्त हैं। मीठे जल के उपयोग को सार्थक बनाने हेतु राष्ट्रव्यापी अभियान प्रारम्भ कर लोगों को बोधित किया जाए कि मीठा जल हमारा जीवन है अतः उसका अपव्यय किसी भी स्थिति में नहीं होने दिया जाए।
दूषित जल के सेवन से होने वाले दुष्प्रभावों, विभिन्न रोगों के प्रसार, उनके निदान, रोकथाम प्रसंग में जल-शोधन योजनाओं पर कार्य तो हआ है, परन्तु जिस अनुपात में सकारात्मक प्रतिफल प्राप्त होने चाहिये थे, वे प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं। जल संग्रह करने और उसका उपयोग करने के बारे में सावधानी भी बरतनी आवश्यक है। क्योंकि संकलित जल जो एक स्थान पर ही रुका हुआ होता है, उससे मलेरिया, सिझटो सोरायसिस आदि रोग होते हैं। ऐसे जल को सेवन योग्य नहीं माना जा सकता है। नदियों, तालाबों अथवा अन्य कोई भी जल-स्रोत, जहॉं पानी स्थिर है और दूषित होकर बदबू आ रही है, तो उसका सेवन करना स्वास्थ्य के लिए खतरे से खाली नहीं रहता है। भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तथा राज्यों में स्थापित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा प्रत्येक नागरिक का पुनीत कर्त्तव्य है कि वे परस्पर समन्वय स्थापित कर मीठे जल की शुद्धता को बनाये रखने हेतु निर्मित कानूनों का कठोरता से पालन करें। मीठे जल के साथ सामंजस्य रखना प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य समझने से ही विभिन्न व्याधियों से निजात पाने में हम सफल होकर सुखमय जीवन बनाने का मार्ग प्रशस्त करने में भूमिका अदा कर सकते हैं।
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