यदि हम मानव स्वभाव में ताप वृद्धि को लोकतांत्रिक जीवन पद्धति की असफलता के साथ जोड़कर देखना चाहें तो सम्पूर्ण विश्र्व में लोकतांत्रिक जीवन पद्धति भी संकट में है और लोकतांत्रिक शासन पद्धति भी। क्योंकि सम्पूर्ण विश्र्व के मानव स्वभाव में लगातार ताप वृद्धि हो रही है। यदि हम पिछले पचास वर्षों का आकलन करें तो यह ताप वृद्धि मोटे-मोटे अनुमान से पॉंच डिग्री तक कही जा सकती है अर्थात् प्रतिवर्ष एक डिग्री की बढ़त, किन्तु सबसे खतरनाक चिन्ता यह है कि बीस वर्ष पहले यह वृद्धि 05 डिग्री रही होगी तो अब बढ़ कर 15 डिग्री प्रतिवर्ष हो गई होगी और वृद्धि की रफ्तार बढ़ती जा रही है। यह ताप वृद्धि दुनिया के सभी देशों में बढ़ रही है तथा परिवार से लेकर स्थानीय क्षेत्रों तक इसका प्रभाव समान रूप से देखा जा सकता है। धार्मिक, सामाजिक समाज सुधारकों तक के स्वभाव में इस ताप वृद्धि का असर है।
मानव स्वभाव में यह परिवर्तन एक बहुत ही खतरनाक संकेत है। इस स्वभाव परिवर्तन के कारण परिवार व्यवस्था लगातार टूट रही है। समाज में भी लगातार झगड़े बढ़ रहे हैं। छोटी-छोटी बातों में ही लड़ाई-झगड़े, मारपीट आम बात हो गई है। नैतिकता के सभी मापदण्ड छोटे पड़ते जा रहे हैं। आपसी रिश्ते कलंकित हो रहे हैं। स्वार्थ बढ़ रहा है। कानून व्यवस्था के प्रति विश्र्वास घट रहा है और अपने बल प्रयोग के प्रति विश्र्वास बढ़ रहा है। दुनिया के देशों में भी परस्पर संबंधों में अविश्र्वास बढ़ रहा है। व्यक्ति से समाज तक तथा गांव से विश्र्व व्यवस्था तक लगातार हिंसा का वातावरण बढ़ता ही जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग का जो अर्थ पर्यावरणीय ताप वृद्धि के नाम से प्रचारित है उस ताप वृद्धि से भी यह मानव स्वभाव की ताप वृद्धि अधिक विनाशकारी है क्योंकि इस ताप वृद्धि का प्रभाव परिवार से विश्र्व तक स्पष्ट और तत्काल दिख रहा है, जबकि पर्यावरण ताप वृद्धि का प्रभाव दूरगामी और पर्यावरण के माध्यम से है। पर्यावरण ताप वृद्धि का समाधान भी तकनीकी है, जबकि मानव स्वभाव ताप वृद्धि का प्रभाव व्यवस्थात्मक है। कुल मिलाकर ग्लोबल वार्मिंग का मानव स्वभाव में परिवर्तन, पर्यावरण ताप परिवर्तन की अपेक्षा चिन्ता का विषय है। किन्तु दुर्भाग्य से इस विनाशकारी विश्र्वव्यापी समस्या पर चर्चा न के बराबर की जाती है और पर्यावरण ताप वृद्धि के प्रभाव को बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है।
मानव स्वभाव में इस विनाशकारी परिवर्तन का कारण न तो भौतिक है और न प्राकृतिक। इसका कारण पूरी तरह समाज व्यवस्था में बदलाव है। समाज व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को न्याय और सुरक्षा की गारण्टी आवश्यक है। ज्यों-ज्यों यह गारण्टी कमजोर होती है त्यों-त्यों व्यक्ति के मन में व्यवस्था के प्रति विश्र्वास घटता जाता है और उसी के अनुसार उसे आत्मनिर्भरता की आवश्यकता महसूस होने लगती है। यह आवश्यकता ही मानव स्वभाव में परिवर्तन का कारण बनती है। यदि व्यक्ति को न्याय और सुरक्षा की निश्र्चित गारण्टी मिल जाए तो उसे ऐसी आवश्यकता महसूस ही नहीं होगी और तब उसके स्वभाव में परिवर्तन भी नहीं होगा।
समाज में कुछ वर्ग ऐसे स्वभाव परिवर्तन का लाभ उठाकर आगे बढ़ना शुरू कर देते हैं और व्यवस्था उन्हें नहीं रोकती या नहीं रोक पाती, तब शेष समाज की भी मजबूरी हो जाती है कि वह स्वभाव परिवर्तन करे। धर्म जब अपने अनुयायियों को गुणात्मक परिवर्तन की दिशा में प्रेरित करता है, तब तक कोई कठिनाई नहीं आती किन्तु धर्म जब संख्या विस्तार हेतु प्रतिस्पर्धा शुरू कर देता है, तब यह खतरा खड़ा हो जाता है।
धर्म के बाद ताप वृद्धि का दूसरा आधार माना जाता है राजनैतिक शक्ति प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा। यदि यह स्पर्धा जनमत जागरण तक सीमित होती तब तक तो कोई दिक्कत नहीं थी किन्तु जब राजनीति पूरी तरह व्यवसाय के रूप में बदल गई, तब इसमें दिक्कत आने लगी। साम्यवाद ने तो बाकायदा वर्ग-संघर्ष का नारा ही घोषित कर दिया। इस नारे का ही परिणाम हुआ कि मानव स्वभाव ताप वृद्धि का सर्वाधिक प्रभाव साम्यवाद पर पड़ा। साम्यवाद का ही अतिवादी स्वरूप नक्सलवाद के रूप में उभरा है। भाजपा पर ऐसा प्रभाव कम है और कांग्रेस में तो बिल्कुल ही नगण्य है। जेडीयू को छोड़कर अन्य दल तो व्यक्तिगत टोली तक ही सीमित हैं। इसलिए उनकी परिचर्चा ही व्यर्थ है।
दुनिया के अनेक देश, दूसरे देशों पर कब्जा करने के प्रयत्नों में लगातार आगे बढ़ रहे हैं। साम्यवादी देश और पूंजीवादी देश जब दो गुटों के रूप में प्रतिस्पर्धारत थे, तब तक इस्लामिक देश संतुलन बनाकर रखते थे किन्तु साम्यवाद के पतन के बाद पूंजीवादी देशों के मनोबल में बहुत वृद्धि हुई। आज स्थिति यह है कि इस ताप वृद्धि का सर्वाधिक प्रभाव अमेरिका पर दिख रहा है। अमेरिका प्रतिदिन की भाषा में भी अब धमकी का व्यवहार करने लगा है और इसके परिणामस्वरूप ही अमेरिका जैसे देशों के स्वभाव में लगातार परिवर्तन आता जा रहा है। फिर भी हम इस्लामिक देश, साम्यवादी देश, पूंजीवादी अमेरिका और भारतीय स्वभाव की तुलना करें तो यदि इस्लामिक या साम्यवादी देश, अमेरिका के समान एक ध्रुवीय शक्ति सम्पन्न हो गए होते तो दुनिया के अन्य देश आज की अपेक्षा कई गुना अधिक भयभीत दिखते। भारतीय स्वभाव तो तुलना में शामिल ही नहीं है। यदि हम स्वतंत्रता के बाद के भारत के आन्तरिक मानव स्वभाव ताप वृद्धि के कारणों पर विचार करें तो हमें गांधीजी के विचारों के प्रभाव की चर्चा अवश्य ही करनी होगी, क्योंकि स्वतंत्र भारत के मानव स्वभाव पर गांधीजी का प्रभाव सबसे अधिक अपेक्षित था। सैद्धांतिक रूप से यदि राज्य व्यवस्था, अपराध नियंत्रण में आवश्यकता से कम बल प्रयोग करती है तो उसका विपरीत प्रभाव न्याय और सुरक्षा पर अवश्यंभावी है और इसके परिणामस्वरूप समाज के सामाजिक वातावरण में हिंसा बढ़ती जाती है।
गांधी जी ने राज्य व्यवस्था को संतुलित बल प्रयोग के स्थान पर न्यूनतम बल प्रयोग का आदर्श दिया। इसका परिणाम विपरीत हुआ अर्थात् राज्य व्यवस्था कमजोर हुई और समाज में हिंसा बढ़ी। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद गांधीजीीर्ं बहुत कम समय तक जीवित रहे, लेकिन गांधीवादियों ने गांधीजी के विचारों को बिना परीक्षण के ही ऐसा प्रचारित किया कि वह विचार भारत के लिए स्वयं में एक नासूर बन गए। गांधीजी आगे क्या कहते, यह बात स्पष्ट हो ही नहीं पाई और समाज के लिए गांधीजी के अहिंसा के विचारों को राज्य पर भी थोपने की लगातार कोशिश हुई। आज भी समाज में हिंसा के पक्षधर अहिंसा के पक्षधरों की अपेक्षा अधिक मजबूत स्थिति में इसलिए हो रहे हैं, क्योंकि समाज की अहिंसा और राज्य की अहिंसा को जोड़कर प्रचारित करने की भूल लगातार दोहराई जा रही है। राम और कृष्ण से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति संतुलित बल प्रयोग की पक्षधर रही है। सम्पूर्ण भारत का मानव स्वभाव गांधी की सोच के विपरीत लगातार हिंसा की ओर बढ़ रहा है किन्तु हम उस पर मौलिक विचार के लिए तैयार ही नहीं हैं।
मुझे आश्र्चर्य होता है कि दुनिया की पर्यावरणीय ताप वृद्धि के लिए दुनिया भर के देश “बाली’ में बैठकर समाधान खोजने में लगे रहे और इस पर लगातार चिन्ता तथा चिन्तन जारी है किन्तु दुनिया का कोई देश, दुनिया के मानव स्वभाव में बढ़ती हिंसा के प्रति एक बार भी बैठ कर चिन्तन या चिन्ता करने के लिए तैयार नहीं। यदि और कोई देश पहल न भी करे तो भारत को यह पहल करनी ही चाहिए थी क्योंकि भारत के लिए तो अहिंसा गांधी की प्रतिष्ठा का प्रश्र्न्न बनी हुई है। सम्पूर्ण भारत में हिंसा के प्रति बढ़ता आकर्षण आज की सबसे अधिक घातक समस्या है। किन्तु हम इस समस्या की गंभीरता को समझने में भूल करके अन्य अनेक कम महत्व की समस्याएं सुलझाने में व्यस्त हैं। इस समस्या को सुलझाने की अपेक्षा उलझाया अधिक जा रहा है। समाज में हिंसा के पक्ष में विचार फैलाये जा रहे हैं, जबकि समाज में अहिंसा के पक्ष में गांधीवादी विचारों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। मैं नहीं कह सकता कि वर्तमान में गांधी के नाम पर प्रचारित नीतियों में कितनी गांधी की वास्तविक सोच है और कितनी गांधीवादियों द्वारा गांधी की सोच को तोड़-मरोड़ कर अपनी सुविधा की संस्कृति।
किन्तु जो कुछ अभी गांधी के नाम पर प्रचलित है उसी को गांधी मानकर चला जा रहा है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि भारत के मानव स्वभाव में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति पर गंभीर विचार-मंथन किया जाये और गांधी के अहिंसा के विचार को मजबूत करने के लिए गांधी मार्ग में संशोधन भी आवश्यक हो तो किया जाना चाहिए।
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