सुधीर पांडे टेलीविजन की दुनिया के एक ऐसे कलाकार हैं, जो धारावाहिक युग के शुरुआती दिनों से धारावाहिकों में अभिनय कर रहे हैं। पिछले 23 बरसों में हर वक्त किसी न किसी चैनल पर उनका कोई न कोई धारावाहिक चलता रहा है। सहारा वन पर उनका एक धारावाहिक “मेरा ससुराल’ चल रहा है, जिसमें वे परिवार प्रमुख यशपाल खजूरिया की भूमिका में हैं। साथ ही सोनी सब पर भी उनका एक धारावाहिक “गपशप कॉफी शॉप’ का प्रसारण हो रहा है।
टीवी पर 50 से भी अधिक प्रमुख धारावाहिकों में काम कर चुके सुधीर पांडे ने अपने बेहतरीन काम से अपनी जो पहचान बनाई है वह किसी से छिपी नहीं है। ज्यादातर लोग समझते हैं कि सुधीर पांडे ने अपना कॅरियर “बुनियाद’ धारावाहिक से शुरू किया जबकि ऐसा नहीं है, “बुनियाद’ से पहले सुधीर ने “वाह जनाब’ और “काला जल’ जैसे धारावाहिक तो किए ही साथ ही उससे पहले उन्होंने कई फीचर फिल्में भी कीं और रेडियो, टीवी और स्टेज पर बहुत से नाटकों में काम किया।
आप फिल्मों में कॅरियर बनाना चाहते थे। अपनी उस असफलता को लेकर आज आप क्या सोचते हैं?
दरअसल सन् 74 के दौर में अभिनय में कॅरियर बनाने के लिए सिर्फ फिल्मों का ही प्लेटफार्म था। टीवी तब ब्लैक एंड व्हाइट था और हफ्ते में एक दो बार ही टीवी ड्रामा आते थे। मुझे 1978 में निर्देशक दुलाल गुहा की फिल्म “धुआं’ मिली। उसमें दो ही करेक्टर थे और मेरा पुलिस ऑफिसर का रोल था। फिल्म चली नहीं, तो मैं भी नहीं चला।
आपने फिल्में तो काफी कीं और आपको काम भी मिलता ही रहा?
आपकी बात बिल्कुल सही है। फिल्में तो मैंने 70-80 की हैं, जिनमें “कॉलेज गर्ल’, “आहिस्ता-आहिस्ता’, “ये नजदीकियां’, “मैं आज़ाद हूँ’, “अम्बा’, “बंजारन’ और “अग्निपथ’ जैसे बहुत से नाम हैं। दरअसल, मुझे फिल्मों में काम मेरे थिएटर और पूना फिल्म इंस्टीट्यूट बैकग्राउंड के कारण मिलता रहा, इसलिए नहीं कि मैं कोई कामयाब एक्टर था। हमारी ज्यादातर फिल्में अच्छे एक्टर्स के कारण नहीं बल्कि कामयाब एक्टर्स के नाम पर चलती हैं।
आपके पिता देवकी नन्दन पांडे का नाम उन दिनों घर-घर में गूंजता था। तब आपने अपने पिता की तरह रेडियो न्यूज़ रीडर क्यों नहीं बनना चाहा?
मैंने चाइल्ड आर्टिस्ट के रूप में रेडियो पर काम किया, फिर मैंने फिल्म डिवीजन की फिल्मों में कमेंटरी भी की। मुझे लगा कि पिता जी जैसी शोहरत पाना मेरे बस की बात नहीं है। तब मैंने दिल्ली के हस्तिनापुर कॉलेज से बीएससी की, सोचा कहीं और कॅरियर बनाएंगे। मन अभिनय की ओर ही गया। सन् 76 में मुम्बई पहुँचने पर फिल्में नहीं मिलीं तो मैं वहॉं थिएटर करने लगा। “इप्टा’ से जुड़ गया और इस कारण काफी बिजी हो गया। मेरे एक प्ले “कलंक’ को देख कर ही दुलाल गुहा ने मुझे “धुआं’ फिल्म के लिए बुलाया था।
आप अपने पिता के रहते ही एक टीवी स्टार के रूप में लोकप्रिय हो गए थे। आपको लेकर पांडे साहब कितने खुश थे?
जी, अभिनय तो मुझे विरासत में मिला है। पिता जी पहले तो मेरे बारे में काफी चिंतित रहते थे, लेकिन “बुनियाद’ और “अमानत’ के बाद वह संतुष्ट हो गए थे कि मेरी गाड़ी चल निकली है। फिर भी उनकी चाह रहती थी कि मैं सिनेमा भी करूं और उसमें भी ऐसा नाम कमाऊं।
“मेरा ससुराल’ के अपने रोल के बारे में आप क्या कहेंगे, आपके पुराने धारावाहिक से यह कितना अलग है?
“मेरा ससुराल’ धारावाहिक की कहानी तो चाहे बहुत ज्यादा अलग न हो पर इसका फ्लेवर अलग है। मैं इसमें मॉं की भेंटें गाने वाले जगराता गायक यशपाल खजूरिया के रोल में हूँ। हालांकि अब उसकी आवाज़ बैठ गई है और उसके पास इतना पैसा तो है कि वह बिना गाए गुजारा कर सकता है। उसकी पत्नी भी अपने पति की खराब सेहत से घबराती है और उसे गाने के लिए मना करती है। वह कहता है कि सभी कुछ उसे मॉं की महिमा के गुणगान से मिला है। वह कहता है पहले मैं ज़रूरत के लिए गाता था और अब भक्ति के लिए गाता हूँ। धारावाहिक में पिता पुत्र के संबंधों को काफी गंभीरता से दिखाया है। साथ ही बहू-बेटी के रिश्तों के कई रंग इस धारावाहिक में देखने को मिलते हैं।
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