मशहूर शायर इफ्तेखार आरिफ की एक ग़ज़ल

मेरे खुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे

मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे

 

ये रोशनी के तआकुब में भागता हुआ दिन

जो थक गया है तो अब उसको मुख्तसर कर दे

 

मैं ज़िंदगी की दुआ मॉंगने लगा हूँ बहुत

जो हो सके तो दुआओं को बे-असर कर दे

 

कबीला-वार कमानें कड़कने वाली हैं

मेरे लहू की गवाही मुझे निडर कर दे

 

मैं अपने ख्वाब से कट कर जियूँ तो मेरे खुदा

उजाड़ दे मेरी मिट्टी को दर-ब-दर कर दे

 

मेरी ़जमीन मेरा आखिरी हवाला है

सो मैं रहूँ न रहूँ इसको बार-वर कर दे

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