मथुरा

Mathuraमनु स्मृति, महाभारत, ब्रह्मवैवृत्त पुराण, वाराह पुराण, वृहत संहिता, आग्न पुराण, हरिवंश पुराण इत्यादि धार्मिक ग्रंथों में मथुरा से संबंधित आख्यान पढ़ने को मिलते हैं। जरासंघ के बार-बार आामण किये जाने के फलस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण ने कूटनीति से मथुरा से द्वारिका गमन का तात्कालिक रास्ता निकाला था। श्रीकृष्ण के द्वारिका गमन के पश्र्चात् मथुरा का ह्रास अवश्यंभावी था। उत्तरोत्तर समय में ब्रज क्षेत्र में जन-शून्यता हो गई थी, ऐसा उल्लेख स्कन्द पुराण में मिलता है। उक्त पुराण के अनुसार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के प्रपौत्र व्रजनाभ को ब्रज क्षेत्र का राजपाट सौंपा था, तब व्रजनाभ ने महाराजा परीक्षित के आगे वेदना प्रकट करते हुए यह कहा था कि मुझे निर्जन प्रदेश का राजा बनाया गया है। मगर महाराजा परीक्षित के मार्गदर्शनानुसार बाद में ब्रज के क्षेत्रों का कृष्ण-कथा के क्रम अनुसार स्थापन किया गया। हालांकि विधर्मी आमणों के दौर में ब्रज क्षेत्र को ध्वंस की पीड़ाओं का सामना भी करना पड़ा।

मथुरा रेल एवं सड़क मार्ग द्वारा पूरे देश से सीधा जुड़ा हुआ है। रहने व खाने-पीने की उत्तम व्यवस्था के बीच मथुरा में लाखों तीर्थ-यात्री प्रतिवर्ष दर्शनार्थ आते हैं। मथुरा की परिामा करने की परम्परा दीर्घकाल से है। प्रत्येक माह की एकादशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को भक्तगण मथुरा नगर की पदयात्रा करते हैं। मास में भक्तगणों द्वारा प्रतिदिन मथुरा की परिामा की जाती है। इसके अलावा ग्रहण, देवशयनी, देवोत्थान एकादशी, अक्षय नवमी इत्यादि अवसरों पर ग्यारह मील लम्बी मथुरा की परिामा विशेष रूप से की जाती है।

मथुरा में अनेक पर्व व उत्सव मनाये जाते हैं। धूमधाम से मनाये जाने वाले पर्वोत्सवों में यमुनाषष्टी, दुर्गाष्टमी, रामनवमी, नृसिंह चतुर्दशी, दशहरा, व्यास पूर्णिमा, हरियाली तीज, रक्षा-बंधन, जन्माष्टमी, राधाष्टमी, अनन्त चतुर्दशी, यमद्वितीया, देवोत्थान एकादशी, बसन्तोत्सव, महाशिवरात्रि, होलिका उत्सव, सोमवती अमावस्या, सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण आदि प्रमुख हैं।

मथुरा के प्रमुख दर्शनीय स्थल

द्वारिकाधीश मन्दिरः

एक सौ अस्सी फुट लम्बी तथा एक सौ बीस फुट चौड़ी कुर्सी पर अवस्थित यह मंदिर स्थापत्य कला की बेजोड़ कृति है। मंदिर के भीतर सुदृढ़ एवं कलात्मक स्तम्भ है। मंदिर में विशाल मण्डप भी है। शीशे का कार्य तो बस देखते ही बनता है। इस मंदिर में चतुर्भुजी श्याम मूर्ति है, जिनके चारों हाथों में गदा आदि आयुध विद्यमान हैं। श्यामसुन्दर जी के विग्रह की बायीं ओर श्र्वेत स्फटिक का रुक्मणी जी का विग्रह अवस्थित है। यह मंदिर असकुण्डा के समीप बाजार में स्थित है। लम्बे-चौड़े परिसर में स्थित इस मंदिर का निर्माण 1814-15 में हुआ था। सावन मास में यहां हिंडोले का उत्सव मनाया जाता है। जन्माष्टमी, अन्नकूट, होली आदि पर्व यहां बड़ी धूमधाम से मनाये जाते हैं। मंदिर में श्री द्वारिकाधीश जी की दिन में आठ बार झांकियॉं प्रदर्शित की जाती हैं।

कृष्ण जन्मभूमिः

कटरा केशवदेव के नाम से भी यह स्थान जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कटरा केशवदेव ही राजा कंस का जेल-भवन रहा है एवं भगवान श्रीकृष्ण ने यहां जन्म लिया था। ऐसी मान्यता है, जो कि ठोस धरातल पर आधारित है। यहां पर समय-समय पर अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ था, लेकिन इस स्थान को ध्वंस की पीड़ा कई बार झेलनी पड़ी। ध्वंस के आन्तम समय में यह स्थान औरंगजेब की कुदृष्टि का शिकार बना। इस स्थान के उद्धार हेतु केवल गणमान्य विद्वान ही नहीं बल्कि राजा-महाराजा भी आगे आये। इसी के परिणामस्वरूप बनारस के राजा पटनीमल ने इस स्थान को खरीद लिया था। पश्र्चात्वर्ती समय में पंडित मदनमोहन मालवीय तथा सेठ जे.के. बिड़ला के सद्प्रयत्नों से यहां श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर ट्रस्ट की स्थापना हुई। अब यह लम्बा-चौड़ा मंदिर परिसर महापुरुषों के योगदान के फलस्वरूप उत्तरोत्तर विकास की डगर पर चल रहा है। यहां आयुर्वेदिक औषधालय, पुस्तकालय, अतिथिगृह, भागवत भवन सहित अन्य देवविग्रह दर्शनीय स्थल हैं। विद्युत चलित झांकियॉं भी यहां पर देखी जा सकती हैं।

विश्राम घाटः

यह यमुनाजी के मंदिर के पास स्थित है। यह मथुरा का प्रमुख घाट है। इस घाट के उत्तर में 12 तथा दक्षिण में 12 घाट अवस्थित हैं। संध्याकाल यहां यमुनाजी की आरती का विहंगम दृश्य नजर आता है। जयपुर, रीवा तथा काशी नरेशों ने इस घाट पर स्वर्णदान किया था। इससे पूर्व ओरछा के राजा वीरसिंह ने यहां 81 मन सोने का दान किया था। ऐसी जन मान्यता है कि यम द्वितीया के दिन लाखों भाई-बहन यहां एक साथ इस घाट पर स्नान करने से यमलोक- गमन से मुक्त हो जाते हैं। कंस को मारने के पश्र्चात् श्रीकृष्ण तथा बलराम ने यहां विश्राम किया था। इसलिए इस स्थान को विश्रामघाट कहा जाता है।

पवन कुमार कल्ला

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