आर्थिक विकास के कार्यक्रम बनाने में सावधानी बरतनी चाहिये। सिंधु घाटी के हमारे पूर्वजों ने पक्की मिट्टी के शहर बनाये। यह उस समय का उत्कृष्ट तकनीकी विकास था। ईंट पकाने के लिये ईंधन की ज़रूरत पड़ी जिसके लिये उन्होंने जंगल काट डाले। फलस्वरूप नदियों में मिट्टी भर गयी और बाढ़ का प्रकोप इतना बढ़ गया कि सभ्यता ध्वस्त हो गयी। लगभग इसी तरह का खतरनाक विकास विश्र्व की तमाम नदियों पर हो रहा है। अफ्रीकी देश टुनिसिया के अखबार में एक शीर्षक था कि “कहॉं चली गयीं सब बीचें?’ बताया गया कि बंदरगाह और डैम बनाने तथा शहरी कचरा डालने से समुद्र तटों का क्षय हो रहा है जिससे पर्यटन का भारी नुकसान हो रहा है। बंदरगाह से हुआ आर्थिक लाभ समुद्री किनारों के लीले जाने से निष्फल हो रहा है।
टुनिसिया की प्रमुख नदी मेडजरडा है। यह नदी अल्जीरिया से प्रवेश करती है। इस नदी पर मल्लेबू डैम बनाया गया है। देश के उत्तर-पश्र्चिम तटीय क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है। इस पानी को समुद्र में बहने से पहले रोक लिया जाता है। पंपों के सहारे इसे 2000 फीट की ऊँचाई तक उठाया जाता है और नहरों, पाइप लाइनों एवं नदियों के सहारे देश के पूर्वोत्तर के रेगिस्तानों तक पहुँचाया जाता है जहां संतरे, खुबानी, आलिव, सब्जी और गेहूं की उत्तम खेती होती है। सरकार ने पूरे देश के जल संसाधनों का एकल नेटवर्क बना रखा है। लगभग सभी नदियों का आपस में लिंक किया जा चुका है। देश के संपूर्ण जल संसाधन का वितरण ज़रूरतों को देख कर किया जाता है। पहले शहरों की ज़रूरत पूरी की जाती है, फिर क्रम से फलदार वृक्षों, सब्जी एवं अनाज की। बुआई के पहले सरकार क्षेत्रीय किसान संगठनों को सूचित करती है कि कितना पानी उपलब्ध होने की संभावना है। किसान तदनुसार बुआई करते हैं जिससे बाद में जल संकट उत्पन्न नहीं होता है।
इस बेहतरीन व्यवस्था के सामने कई संकट मंडरा रहे हैं। मल्लेबू डैम 50 वर्षों में मिट्टी से भर गया है। उसमें जल कम मात्रा में ही रुक रहा है। सरकार चाहती है कि इस डैम के नीचे दूसरा डैम बनाये परन्तु स्थान नहीं मिल रहे हैं। केरवान शहर को बाढ़ से बचाने के लिये जेरूड नदी पर हवारिब डैम बनाया गया है। कई वर्षों तक शहर सुरक्षित रहा किन्तु अब नई समस्या सामने आ रही है। डैम से नदी के पानी का बहाव कम कर दिया गया है। पानी जोर से नहीं बहता है। फलस्वरूप नदी में मिट्टी जम रही है। पूर्व में बाढ़ के समय यह बहकर समुद्र में चली जाती थी। अब नदी का पाट ऊँचा हो रहा है। कम पानी के बहाव से भी बाढ़ की स्थिति पैदा हो रही है। बांध बनाने से बाढ़ से कुछ वर्षों तक बचाव हुआ किन्तु बाद में यह खतरा बढ़ गया है। तीसरी समस्या समुद्र तटों के क्षय की है। टुनिसिया की राजधानी टुनिस के पास घर एल मेह बीच पर बने लगभग दस घरों की कतार अब समुद्र में डूबने को है। वहॉं रहने वालों ने बताया कि पिछले तेरह वर्षों में समुद्र 100 मीटर भूमि को लील चुका है और अब मकानों के चबूतरे एवं दीवारें समुद्र में समा रही हैं। सिडी अलि अल मक्की पर पिछले एक वर्ष में ही समुद्र लगभग 50 मीटर तट को लील चुका है। वहॉं के दुकानदार ने बताया कि पिछले वर्ष वह दुकान एवं समुद्र के बीच पर्यटकों के लिये छह छाते लगाता था। इस वर्ष वह केवल दो छाते लगा पा रहा है।
टुनिसिया की सरकार द्वारा बनाया गया जल वितरण नेटवर्क तकनीकी आश्र्चर्य है। देश को मिलने वाले पानी की एक-एक बूंद का सदुपयोग किया जा रहा है। किन्तु डैम और नदियों में मिट्टी का जमाव हो रहा है और समुद्र तट का क्षय हो रहा है। संभव है कि इन समस्याओं का समाधान नयी तकनीकों से खोज लिया जाये। कंस्ट्रक्शन तकनीकों से डैम बनाने का खर्च कम किया जा सकता है और कठिन स्थानों पर भी डैम बनाये जा सकते हैं। भारत के आदिवासी लोग झूम खेती करते हैं। एक भूमि पर तीन वर्ष तक खेती करने के बाद उसे 15 वर्ष तक परती छोड़ दिया जाता है इससे उसकी पैदावार क्षमता पुनः बढ़ जाती है। इसी तरह 50 वर्षों में एक डैम के मिट्टी से भर जाने के बाद दूसरे डैम बनाये जा सकते हैं। परन्तु एकत्र हुई मिट्टी के निस्तारण की समस्या का हल कठिन लगता है। डैम की मिट्टी को उठाकर खेतों में संभवतः डाला जा सकता है। नदी के पाट के मिट्टी से भरने की समस्या को भी ट्रकों अथवा पानी के सूक्ष्म कंट्रोल से हल किया जा सकता है। समुद्र तटों के कटाव को रोकने के लिये नजदीकी पहाड़ों से बालू और पत्थर लाकर समुद्र में डाले जा सकते हैं। किन्तु ये उपाय अत्यन्त महंगे होंगे, साथ ही इनकी सफलता भी संदिग्ध है।
इन उपायों के असफल होने पर टुनिसिया पर गंभीर संकट आ पड़ेगा। डैम भर जाने के बाद मिट्टी बहना शुरू हो जाएगा और बाढ़ विकराल रूप धारण कर लेगी। समुद्र तट का क्षय न रुका तो टुनिसिया को पर्यटन से होने वाली आय कम हो जायेगी। मुख्य बात यह है कि वर्तमान में जो महान तकनीकी विकास दिख रहा है वह अगले समय में विनाश का कारण बन सकता है।
अफ्रीकी देशों में टुनिसिया का स्थान श्रेष्ठ है। इस देश के पास तेल के भंडार नहीं हैं। फिर भी आय ऊँची है। इस देश ने अपने समुद्र तटों पर पर्यटन का जोरदार विकास किया है। यूरोप से करोड़ों पर्यटक समुद्र में डुबकी लगाने के लिये यहॉं आते हैं। उपलब्ध पानी का समुचित वितरण करके इस देश ने कृषि में बेजोड़ सफलता हासिल की है। यह देश आडू, खुबानी, आलिव, तरबूज एवं सिट्रस आदि फलों के उत्पादन का राजा है। साथ ही खाद्यान्न एवं पशुओं का आहार भी उत्पन्न हो जाता है। इस देश की अर्थव्यवस्था के दो मूल स्तंभ हैं-कृषि एवं पर्यटन। दोनों का आधार पानी है। बांधों में मिट्टी समाहित हो जाने के कारण जल का संग्रहण और वितरण कठिन हो जायेगा फलस्वरूप खेती प्रभावित होगी। समुद्र तटों के क्षरण से पर्यटन प्रभावित होगा और आय कम होगी।
इस प्रकार पिछले 50 वर्षों में बांधों में हुई आय अगले 100-200 वर्षों के लिये अभिशाप बन सकती है, ठीक उसी तरह जैसे सिंधु घाटी के लोगों द्वारा जंगल काटकर पक्की ईंटों के शहर बसाना अभिशाप बन गया था। कुछ दशकों तक आराम देने के बाद प्रकृति ने ऐसा बदला लिया कि पूरी सभ्यता तहस-नहस हो गयी। भारत अपनी नदियों पर तमाम बांध बना रहा है। हम इसके तापमान, मैदानी क्षेत्रों के भूमिगत जल एवं समुद्र तट पर प्रभाव को अनदेखा कर रहे हैं। आने वाले समय में इसके भीषण परिणाम सामने आने की प्रबल संभावना बनती है। देश की सरकार को बांध बनाने से पूर्व अन्य सभ्यतां एवं देशों की स्थिति का मुआयना कर लेना चाहिये। जल्दबाजी में लिये गये निर्णयों एवं तात्कालिक लाभ के मायाजाल से बचना चाहिये और प्रकृति से दीर्घकालीन एवं स्थायी सामंजस्य स्थापित करना चाहिये। बांधों के निर्माण में सावधानी बरतने की ज़रूरत है।
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