प्रकृति और आदमी का सदा से साथ रहा है। इसी प्रकृति के पर्यावरण में हम, अन्य जीव तथा पेड़-पौधे जीते हैं। यदि प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाएगा, तो हम सब पर उसका बुरा असर पड़ेगा। पिछले कुछ वर्षों से इस संतुलन में बहुत-कुछ बिगाड़ आया है। इसका कारण आदमी ही है। हम देख रहे हैं कि पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, हवा-पानी दूषित हो रहे हैं, जलवायु में परिवर्तन हो रहे हैं, वनों का क्षरण हो रहा है, प्राणियों की अनेक प्रजातियां समाप्त हो गईर्ं हैं और अनेक रोग बढ़ रहे हैं।
अब से 43 वर्ष पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में संसार के देशों ने पर्यावरण में सुधार लाने के लिए पहली बार एक सम्मेलन का आयोजन किया था। तब संयुक्त राष्ट्र संघ ने एक विश्र्वव्यापी पर्यावरण कार्यक्रम शुरू किया था। इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाने में बाधाएं आईं और साथ-साथ सफलताएं भी मिली हैं। यदि यह कार्यक्रम न चलाया गया होता तो आज स्थिति और भी बिगड़ी दिखाई देती। नगरों और शहरों में इतनी साफ हवा नहीं होती, ओजोन परत और भी क्षीण हो जाती तथा विकासशील देशों में साफ पानी और सफाई नहीं होती। यह अवश्य है कि जितनी सफलता मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली है। अब भी अनेक नगरों की हवा साफ नहीं है, नदियां और झीलें प्रदूषित हो गई हैं, काफी वन क्षेत्र उजाड़ दिए गए हैं तथा क्षेत्रीय संघर्षों ने पर्यावरण को भी बहुत हद तक खराब किया है।
पर्यावरण में खराबी के कारण आदमी का स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है। अनेक प्रकार के रोग फैल रहे हैं। संसार का खाद्य उत्पादन कम हो रहा है, अनेक देशों में आर्थिक प्रगति में बाधाएं आ रही हैं। यदि ओजोन परत के क्षरण को न रोका गया तो अगले 50 सालो में लाखों लोगों को त्वचा का कैंसर हो जाएगा। यह मिसाल हमें बताती है कि हमारा स्वास्थ्य हमारी पृथ्वी के स्वास्थ्य से कितना जुड़ा हुआ है।
कृषि-उत्पादन के लिए नयी भूमि मिलनी दुर्लभ हो गई है। मीठा जल उपलब्ध नहीं है। विश्र्व अनाज उत्पादन पर भूमि के कटाव, वायु प्रदूषण तथा बहुत अधिक गर्मी का प्रतिकूल असर पड़ रहा है। वनों के छीजने के कारण बाढ़ें आ रही हैं और जैव-विविधता नष्ट होती जा रही है। विश्र्व बैंक का अनुमान है कि अवैध वन-विनाश के कारण गरीब देशों को 10 से 15 अरब डॉलरों की क्षति प्रतिवर्ष हो रही है। यह क्षति साधनों और राजस्व के रूप में हो रही है। यदि यही धन बच जाए तो बच्चों को शिक्षा दी जा सकती है, मरीजों का इलाज हो सकता है और पर्यावरण का भलीभांति संरक्षण हो सकता है।
जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण हमारे वायुमंडल में कार्बन डाई-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ना है। इसके कारण तापमान में वृद्धि हुई है। जलवायु परिवर्तन पर अन्तर सरकार समिति ने अनुमान लगाया कि गत शताब्दी में 0.6 अंश सेंटीग्रेड तापमान बढ़ा है। यदि यही गति रही तो इस शताब्दी में तापमान 6 अंश सेंटीग्रेड बढ़ जाएगा। इसका असर यह होगा कि गरम होते महासागरों का विस्तार हो जाएगा, जिसके कारण समुद्रों का जल स्तर ऊंचा हो जाएगा। इस स्तर में एक मीटर की वृद्धि से मिस्र की एक प्रतिशत, नीदरलैंड की 6 प्रतिशत तथा बंगलादेश की 17.5 प्रतिशत भूमि डूबे हुए क्षेत्र में आ जाएगी।
नेचर पत्रिका में वैज्ञानिकों की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें कहा गया था कि भविष्य में वायुमंडल और अधिक गरम होगा। पृथ्वी की गरमाहट पहले के अनुमानों से कहीं अधिक बढ़ेगी। बताया गया है कि वर्ष 2100 तक औसत विश्र्व तापमान 5.5 अंश सेन्टीग्रेट ज्यादा हो सकता है।
कहा जा रहा है कि पहले के अनुमान सीमित कार्य कारणों पर आधारित थे। अब इसके विपरीत कहा जा रहा है कि पृथ्वी के वायुमंडल की गरमाहट अन्य कारणों पर भी निर्भर करेगी, जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, सूर्य की गतिविधि में उतार-चढ़ाव तथा ग्रीन हाउस गैस और ओजोन के परिवर्तनशील स्तर। इससे महासागरों का असर पृथ्वी पर पड़ेगा और पृथ्वी का असर महासागरों पर।
समझा जा रहा है कि मानव और उसके पर्यावरण की स्थिति अब से 30 साल पहले की अपेक्षा काफी बदल गई है। पर्यावरण की चिन्ता ने वास्तविक रूप धारण कर लिया है। अब पर्यावरण में सुधार को व्यापक समर्थन मिल रहा है। भारत ने पर्यावरण के क्षेत्र में व्यापक कदम उठाए हैं। सरकारी संगठन, गैर-सरकारी संगठन, उद्योगों तथा नागरिकों के साथ मिलकर चल रहे हैं। भारत में पर्यावरण कानूनों का एक पुख्ता ढांचा तैयार हो गया है। प्रदूषण फैलाने वालों को दंडित किया जा रहा है।
स्वच्छ पर्यावरण के लिए अनेक अनुसंधान कार्यक्रम चल रहे हैं। इनमें एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिकीय प्रणाली अनुसंधान योजना है, जिसमें आदमी और पर्यावरण के संबंधों का गहराई से अध्ययन किया जा रहा है। पर्यावरण अनुसंधान कार्यक्रम विशेष रूप से वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण की छान-बीन करता है तथा उसे दूर करने के लिए उचित प्रौद्योगिकी अपनाने की सिफारिश करता है। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण संगठन की गतिविधियों में भी सक्रिय भूमिका अदा कर रहा है।
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