ग़नीमत यह है कि ग़रीब जनता का ध्यान रखते हुए सरकार ने केरोसिन तेल के दाम में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की है। निश्र्चित रूप से सरकार को इस मूल्य वृद्धि का फैसला ऐसे समय लेना पड़ा है जब मुद्रास्फीति की दर प्रति सप्ताह तेजी से भाग रही है। अर्थशास्त्री सरकार के इस फैसले को महंगाई में और इज़ाफ़ा करने वाला फैसला बता रहे हैं। उनका अनुमान है कि पिछले सप्ताह आठ का आंकड़ा पार कर चुकी मुद्रास्फीति दर इस मूल्य वृद्धि के बाद दहाई की संख्या पार कर सकती है। इस मूल्य वृद्धि के बाबत सरकार का कहना है कि यह उसके लिए भी एक अप्रिय फैसला है, लेकिन किसी अन्य विकल्प के अभाव में यह फैसला लेने को मजबूर होना पड़ा है। सरकार के इस फैसले से विपक्ष का कुपित होना स्वाभाविक है, लेकिन समर्थन देने वाला वाममोर्चा भी इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आया है। भाजपा इसे संप्रग सरकार का आर्थिक आतंकवाद बता रही है तो वामपंथी इसे आम आदमी के मुंह पर “करारा तमाचा’ बता रहे हैं। सरकार इसे अपनी मजबूरी करार दे रही है। पहले से ही जानलेवा महंगाई के त्रासद दौर से गुजर रहा देश का आम आदमी इसे क्या करार दे, वह हतप्रभ है और स्थितियॉं-परिस्थितियॉं उसकी समझ से बाहर चली गई हैं।
यह तो मानना ही होगा कि चुनाव वर्ष में इस तरह का अप्रिय फैसला लेते हुए संप्रग सरकार ने अपने राजनीतिक भविष्य का आंकलन अवश्य कर लिया होगा। संप्रग सरकार की अगुआ कांग्रेस 2004 में केन्द्र की गद्दी संभालने के बाद से लगातार विधानसभा चुनावों में अपनी पराजय दर्ज कर रही है। कांग्रेस को यह बखूबी पता होगा कि पहले से महंगाई की मार झेल रही जनता पेट्रो पदार्थों की इस मूल्य वृद्धि को पचा नहीं पायेगी और वह चुनावों में अपना फैसला कांग्रेस तथा सहयोगी दलों के खिलाफ भी दे सकती है। इन बातों को जानते-बूझते यदि संप्रग सरकार को यह जो़खिम भरा फैसला लेना पड़ा है तो यह स्वीकार करने की स्थिति बनती है कि फैसला राजनीतिक नहीं, आर्थिक है और वह भी बहुत मजबूरी में, किसी अन्य विकल्प के अभाव में लिया गया है।
इस दृष्टि से अगर प्रधानमंत्री यह कहते हैं कि इससे बचने के सारे विकल्प खंगालने के प्रयास सरकार ने किये और जब कोई तजवीज़ काम न आई तो पेट्रो-ईंधन के दाम बढ़ाने पड़े, तो उनकी बात को स्वीकार करना ही पड़ेगा। भारत अपनी घरेलू खपत का 70 प्रतिशत कच्चा तेल अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार से खरीदता है। अतः इसके मूल्य निर्धारण में अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव से इन्कार नहीं किया जा सकता। इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि कच्चा तेल आयात करने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के लिए अब और घाटा बर्दाश्त कर पाना संभव नहीं रह गया था और उन्होंने सरकार को स्पष्ट चेतावनी दे दी थी कि अगस्त के बाद वे कच्चा तेल आयात करने की स्थिति में नहीं रह जायेंगी। इस तथ्य पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि इस मूल्य-वृद्धि के बाद भी कंपनियों के घाटे को सिर्फ 10 प्रतिशत ही घटाया जा सकेगा। 90 प्रतिशत का बोझ केन्द्र सरकार और तेल कंपनियों के कंधों पर होगा। दाम बढ़ा कर सरकार ने तेल कंपनियों के दो लाख करोड़ रुपये के घाटे में से सिर्फ बीस हज़ार करोड़ रुपये का बोझ ही जनता पर डाला है। बाकी एक लाख अस्सी करोड़ रुपये का बोझ सरकार और तेल कंपनियां उठायेंगी। इस दृष्टि से सरकार इस वृद्धि को मामूली बढ़ोत्तरी बता रही है।
सरकार द्वारा इस व्यवस्था को अंतरिम व्यवस्था ही कहा जा सकता है। लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में जिस तरह कच्चे तेल के दाम बढ़ रहे हैं, उसे देखते हुए इस समस्या का स्थायी हल निकालना बहुत ज़रूरी हो गया है। प्रधानमंत्री ने इस ओर इशारा भी किया है। उन्होंने साफ कहा है कि अगर इसका समाधान नहीं तलाशा गया तो इसका बोझ भावी पीढ़ी के कंधों पर जाएगा। उन्होंने इन पदार्थों के उपयोग में कोताही बरतने के साथ ही ऊर्जा के अन्य श्रोतों को आजमाने पर ध्यान देने की ज़रूरत को भी रेखांकित किया है। दरअसल ईंधन के विकल्प का बहुत हद तक अभाव भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की मूल्य वृद्धि का कारण बन रहा है। इस व्यापार से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियॉं अपने मुनाफे को ध्यान में रख कर लगातार दाम बढ़ाती जा रही हैं। उनकी मनमानी पर अंकुश लगाने का कोई उपाय भी नहीं है। इसे इसी से समझा जा सकता है कि सिर्फ एक साल के भीतर कच्चे तेल का मूल्य दोगुने स्तर पर पहुँच गया है। यह इसी स्तर पर स्थिर रहेगा, इसकी गारंटी भी नहीं दी जा सकती। जैसी परिस्थितियॉं हैं, उनका आंकलन तो यही कहता है कि कच्चे तेल का दाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ता ही जाएगा। कहॉं तक बढ़ता जाएगा, उसकी कोई सीमारेखा नहीं खींची जा सकती। अतः अगर सरकार यह कहती है कि उसने मजबूरी में यह फैसला लिया है तो इसका विश्र्लेषण राजनीतिक रूप से करने की जगह इसको आर्थिक दृष्टि से विश्र्लेषित करना चाहिए।
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