राजनीति में वफादारी शुद्ध नफा-नुकसान के आकलन पर आधारित होती है। जरूरी नहीं कि आज का वफादार कल भी वफादार रहेगा। भाई लोगों ने इतनी ज्यादा निष्ठा जतलाई है कि निष्ठा व चापलूसी का अन्तर मिट गया है। कांग्रेस में राग दरबारी का कोरस गायन कोई नई बात नहीं है। जो बन्दा इस कला को नहीं साध सका, उसे पार्टी से बाहर होते देर नहीं लगती है। एक समय था जब लोग अंग्रेज हाकिमों की जी-हुजूरी कर अमीर-उमरा की जिन्दगी बसर किया करते थे। यह चापलूसी संस्कृति आजादी के 62 वर्ष बाद भी जीवित है और इसे जीवित रखने में राजनीतिज्ञों, विशेषकर कांग्रेसी विचारधारा के नेताओं ने विशेष योगदान दिया है। राजा अर्जुन सिंह जी की व्यथा भी कुछ इसी प्रकार की है – तीन पीढ़ियों (नेहरू जी – इन्दिरा जी – राजीव गांधी) तक निष्ठावान रहने के बावजूद वे प्रधानमंत्री पद पाने में असफल रहे। इस व्यथा-पीड़ा के लम्हों में उन्होंने निष्ठाओं-आस्थाओं को फिर से परिभाषित करने का प्रयास किया तो कई राजनेताओं को यह नागवार गुजरा। उन्हें लगा कि अर्जुन जी गांधी-नेहरू परिवार के सबसे बड़े, पक्के निष्ठावान होने का दावा कर रहे हैं। लिहाजा, सोनिया जी को कुछ इस कदर भ्रमित किया कि उन्हें अर्जुन सिंह में अनास्था के रंग दिखने लगे। वैसे भी कांग्रेसी संस्कृति में राजीव नाम अधारा… का जाप करने की प्रवृत्ति आम है। हमारे वाईएसआर भी इसी महामंत्र को जपते रहते हैं। सो निष्ठाओं के इस दौर में राग दरबारी प्रवृत्ति बढ़ रही है तो कोई आश्र्चर्य नहीं। गांधी-नेहरू परिवार की चापलूसी उनके लिए राजनीतिक वैतरणी पार करने का सबसे सुगम-सहज जरिया है।
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राजनेताओं की निष्ठा बनाम राग-दरबारी added by सम्पादक on
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