कुल्लू का नाम आता है तो नग्गर का स्वतः ही स्मरण हो आता है। हो भी क्यों न, समूचे कुल्लू का इतिहास नग्गर के गिर्द ही घूमता है। इतिहास को जानने वाले इस गॉंव के संबंध में यदि विवरण देना शुरू कर दें तो एक पुस्तक लिखी जा सकती है। सृष्टि के आविर्भाव से लेकर आज तक इस गॉंव का महत्व बराबर बना हुआ है।
कुल्लू-मनाली के ठीक बीचों-बीच एक टीलेनुमे स्थान पर स्थित है यह। इस गॉंव की स्थिति कुछ इस प्रकार है, यहॉं से समूची कुल्लू घाटी का ओर-छोर एक ही दृष्टि से देखा जा सकता है। सुदूर उत्तर में उझी-मनाली- रोहतांग से लेकर दक्षिण में मंडी-कंडी-औट तक और सामने ब्यास की सबसे खुली घाटी। समूची घाटी के बीसियों गॉंव यहॉं से बखूबी देखे जा सकते हैं। यही कारण है कि प्राचीनकाल में कुल्लू शासकों ने इस गॉंव को अपनी राजधानी के रूप में स्थापित किया।
लगभग 400 वर्षों तक नग्गर कुल्लू की राजधानी रहा। नग्गर का अनेक प्रकार से धार्मिक व सांस्कृतिक दृष्टि से महत्व है। नग्गर में एक किला है, जो कुल्लू की प्राचीन काठकुणी शैली का बना हुआ है। इसी किले से राजा शासन चलाते थे और सामरिकता की दृष्टि से भी इसका उपयोग होता था। इसी किले के आगे जगती पौट नामक एक विशाल शिला है।
इस शिला के बारे में यह कथा प्रसिद्ध है कि देवताओं ने मधुमक्खी का रूप धारण करके इस शिलाखंड को भृगुतुंग से काटकर यहॉं स्थापित किया था। पौराणिक संदर्भ के अनुसार एक बार सृष्टि पर भीषण संकट आ गया। भूख, अकाल और महामारी से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। तब देवराज इंद्र ने देवताओं को एक युक्ति सुझाई कि समस्त देवता एक ही स्थान पर इकट्ठा होकर कोई उपाय करें। इसके पश्र्चात् देवताओं ने इंद्र के परामर्श के अनुसार मधुमक्खी का रूप धारण किया। द्राम ढौग नामक पहाड़ के पीछे भृगुतुंग की शिला को काटा, फिर उसे उड़ाकर नग्गर में स्थापित किया और उसी शिला पर सबने एक साथ बैठकर विपत्ति का समाधान सोचा। इस प्रकार संकट टल गया। “जगती पौट’ नामक एक शिला को देवताओं का सिंहासन भी कहते हैं। पौष अमावस्या को मनाई जाने वाली कुल्लू की “बाल्हड़ दयाली’ का पहला दीया इसी शिला पर जलाया जाता है। इस देव-शिला पर अर्घ्य चढ़ाने के लिये आज भी कुल्लू के देवी-देवता आते हैं। इस शिला के बारे में विश्र्वास है कि आज भी समस्त देवी-देवता यहॉं वास करते हैं और लोगों की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।
गॉंव में ही देवी त्रिपुर सुंदरी का मंदिर है। यह मंदिर पैगोड़ा शैली का बना है। इस प्रकार का दूसरा मंदिर मनाली में हिडिम्बा माता का भी है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भी उसी कारीगर ने किया था, जिसने हिडिम्बा मंदिर बनाया था। इस देवी के बारे में गॉंव में अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं। ज्येष्ठ मास में यहॉं “शाढ़ी जाच’ नामक भारी मेला जुटता है।
नग्गर की एक प्रमुख बात यह है कि यहॉं शिखर शैली का विश्र्वमंदिर है, जो समूचा पत्थर से बना है। इस प्रकार के मंदिर कुल्लू घाटी में दशाल और बजौरा में भी हैं। इसका निर्माणकाल नौवीं और दसवीं शताब्दी के दौरान माना जाता है। शिव का वह मंदिर श्रद्धा का केन्द्र तो है ही, साथ ही इतिहासकारों के लिए अध्ययन का रोचक विषय भी है। इसी प्रकार नग्गर गॉंव के शीर्ष पर भी शिखर शैली का मुरली मनोहर मंदिर है, जिसे यहॉं “ठाकुर ठावा’ के नाम से जाना जाता है।
विश्र्वविख्यात चित्रकार निकोलाई रौरिख ने तो इस स्थान को अपनी कला-साधना की स्थली बनाया। रौरिख यहॉं 1927 में आए और 1947 तक मृत्यु पर्यंत यहीं रहे। अपनी कला-यात्रा की श्रेष्ठ कृतियों को उन्होंने यहीं रखा। गॉंव के एक छोर में रौरिख कलादीर्घा है, जहॉं आज भी रौरिख के जलरंग के चित्र दर्शकों और कला-प्रेमियों की रुचि का विषय बने हुए हैं। नग्गर तीन ओर सड़क से जुड़ा गॉंव है। पर्यटन विभाग ने इसे अपने मानचित्र में दर्शाया है। पर्यटन निगम ने नग्गर किले को होटल का रूप दिया है। कुछ निजी होटल भी चला रहे हैं। विश्रामगृह भी बना है। नग्गर वास्तव में एक रमणीक स्थान है। श्रद्धालुओं के लिए यह तीर्थ है, पर्यटकों के लिए एक सुंदर सैरगाह, कला-प्रेमियों के लिए एक कृति तो इतिहास, धर्म और संस्कृति के अध्येताओं के लिए उनकी रुचि का विषय।
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