कहते हैं कि इस दुनिया में चोरों की कमी नहीं। कोई अंडा चोर, कोई मुर्गी चोर! आदमी सोचने लगता है कि पहले मुर्गी हुई थी या अंडा यानी आदमी की फितरत से भ्रष्टाचार उपजा अथवा भ्रष्टाचार ने आदमी की फितरत को बदला। यह विकास की राह भी बड़ी टेढ़ी-मेढ़ी है। आदमी जहॉं से चलता है, प्रायः फिर वहीं पर पहुँच जाता है और सोचता है कि उसने कई मंजिलें तय कर ली हैं। देश की प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है तो साथ में गरीब की गरीबी और भी बढ़ जाती है। दूध की छोड़ो, पानी तक शुद्ध नहीं मिलता। राजनीति में तो शुद्ध नेता ढूंढना बहती गंगा में से सुई ढूंढने के समान है। वैसे चोरों की तरह नेताओं की भी किस्में होती हैं। अंडा चोर छोटे चोर की कैटेगरी में आता है और मुर्गी चोर बड़ी कैटेगरी में आता है, ऐसे ही बड़ा नेता वही होता है जो बड़ा घपला करने पर भी मानता नहीं। छोटा चोर छोटा घपला करके भी कानून के शिकंजे में आ सकता है। हमारे यहॉं कितने ही बाहुबली हैं जो गलत-सलत सब कुछ करते हैं, लेकिन सीना तानकर कानून को ठेंगा दिखलाते हैं। कानून भेड़िये के आगे एक बेबस मेमने-सा हाथ जोड़ कर उनके आगे खड़ा हो जाता है।
चोर-चोर मौसेरे भाई की तर्ज पर नेता-नेता भी मौसेरे भाई कहलाते हैं। देश की राजनीति की नौटंकी में सब चलता है। देश की चिंता में हमारे नेता मानसिक रूप से दुबलाये जा रहे हैं जबकि उनके पेट देश की प्रगति के सूचक न होकर उनकी अपनी प्रगति के सूचक बनते जा रहे हैं। भ्रष्टाचार तक हाईटेक हो गया है। घपलों और घोटालों के महासागर से सभी अपने-अपने हिस्से के मोती लूट रहे हैं। संविधान के तीनों स्तंभ आजकल अपने आपको एक-दूसरे से इक्कीस मानने लगे हैं और एक-दूसरे के क्षेत्र में अपनी टांग अड़ाने का शुभ कार्य करते रहते हैं। मुर्गी और अंडा कन्फ्यूजन में डाल देते हैं। मुर्गी से अब ध्यान आया कि मेक्सिको में रबानीता नामक एक मुर्गी हरे रंग का अंडा देती है। इसे हमारे यहॉं के नेताओं के लिए एक सुखद संकेत माना जा सकता है। कभी यह देश सोने की चिड़िया वाला देश कहलाता था, मुमकिन है कि कल को यहॉं की मुर्गी सोने का अंडे देने लग जाये तो कोई आश्र्चर्य नहीं होगा, क्योंकि यह अचम्भों का देश है! आज के जमाने में सभी कुछ संभव है। लेकिन ऐसी एक मुर्गी से काम नहीं चलेगा क्योंकि एक अनार सौ बीमार की तर्ज पर बंदरबांट में दिक्कत आ सकती है। खाने वाले पेट ज्यादा हैं और कुछ पेट तो ऐसे हैं जिनमें जितना चाहे ठूंस दो, भरते ही नहीं। वे चाहें तो पूरा देश ही उनमें समा सकता है। इसलिए अनेकता में एकता की तरह हमारे अनगिनत नेताओं और नौकरशाहों के लिए ऐसी अनेक मुर्गियों की आवश्यकता होगी ताकि सभी नेताओं और नौकरशाहों को बराबर उनका हिस्सा मिल सके वरना समाजवाद को खतरा पैदा हो सकता है। वैसे अब समाजवाद केवल नारों में ही सिमट कर रह गया है। रस्सी जल चुकी है, केवल राख बाकी है।
चलते-चलते : एक मंत्री जी सोफे में उदास धंसे पड़े थे। एक पत्रकार ने उदासी का कारण पूछा तो मिमियाये, “अभी तक तीन पीढ़ियों के लिए ही जुगाड़ कर पाया हूँ और मुआ इलेक्शन सिर पर आ गया है। अगर हार गया तो बाकी चार पीढ़ियों का क्या होगा।’ ऐसे नेताओं के लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी एक वरदान सिद्ध हो सकती है।
– राजेश निशेश
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